मुख्यपृष्ठनए समाचारइस्लाम की बात : हठधर्मिता और विवादों से बचें मुसलमान

इस्लाम की बात : हठधर्मिता और विवादों से बचें मुसलमान

सैयद सलमान
मुंबई

इस्लाम की सीख है कि धर्म को समझे बगैर ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए जो समाज में विभाजन पैदा करे। नमाज एक व्यक्तिगत आस्था और समयबद्ध धार्मिक प्रथा है इसलिए नमाज पढ़ने या इबादत करने के लिए जबरदस्ती करने की किसी को इजाजत नहीं है। इस्लाम सिखाता है कि ऐसी जगह पर इबादत करना मना है, जिसे जबरन हासिल किया गया हो। वैसे भी जुमा की नमाज मर्दों पर फर्ज है, जबकि महिलाओं के लिए वैकल्पिक है। इस्लाम में कजा नमाज पढ़ने का भी प्रावधान है, ताकि अगर किसी कारणवश नमाज छूट जाए तो बाद में कजा पढ़ी जा सके तो क्या कारोबार, नौकरी, शिक्षण, बीमारी, सफर इत्यादि में अक्सर नमाज नहीं छूटती है? आखिर कजा पढ़कर भरपाई की ही जाती है तो फिर सार्वजनिक स्थानों पर नमाज पढ़ने की यह जिद क्यों?

सावन का पवित्र महीना चल रहा है। कांवड़ यात्रा चल रही है। मुस्लिम समाज का अरबी महीना मुहर्रम भी चल रहा है। मखसूस तबका इसे गम के रूप में मनाता है। शिया मुसलामानों के मातम के वीडियो पर जहर उगलने वाली एक अदाकारा, जो किसी के दम पर अब सांसद हैं, नकारात्मक टिप्पणी करते हुए हिंदू भाइयों को उकसाती हैं। २ रुपल्ली के ट्रोलर उनकी वाह-वाह करते हैं। आत्ममुग्ध महिला इससे प्रसन्न होती हैं, लेकिन यह भूल जाती हैं कि वह अब सांसद हैं और उन्हें तोल-मोल कर बोलना सीखना चाहिए। उनकी और उनके समर्थकों की नजर उन कांवड़ियों के हुजूम पर नहीं पड़ती कि जिस वैâराना-मुजफ्फराबाद जैसी जगहों पर कभी भयंकर फसाद हो चुका है, वहां के मुसलमान कांवड़ियों पर फूल बरसा रहे हैं। अब वहां का आलम यह है कि उनकी एकता इकरा हसन को सांसद बना देती है। वही इकरा संसद में हिंदू तीर्थ यात्रियों के लिए विभिन्न धार्मिक स्थलों तक पहुंचने के लिए विशेष ट्रेन की मांग करती हैं। मुस्लिम डॉक्टर्स की टीम कांवड़ यात्रियों की सेवा-शुश्रूषा में लगी है। उनके पैरों के जख्मों पर मरहम लगा रही है। मुसलमान उनके खान-पान की व्यवस्था कर रहे हैं, जबकि यूपी, उत्तराखंड और भाजपा शासित प्रदेश की सरकारों ने नफरत पैâलाने की हर मुमकिन कोशिश कर ली। कहीं-कहीं कांवड़ियों द्वारा की गई तोड़-फोड़, एकाध जगह पर मुसलमानों पर हमले की खबर भी आई, लेकिन दोनों समाज ने जिस सहनशीलता का परिचय दिया वह काबिल-ए-तारीफ है। कुल मिलाकर नफरत हार रही है, मोहब्बत को जीतता हुआ आसानी से देखा जा सकता है। बस उन आंखों और दिल का होना जरूरी है, जो इस भाव को देख और समझ सकें।
लेकिन इस बीच केरल में मुसलमानों के एक समूह की हरकत से नफरत के बीज बोनेवालों को खुराक मिल गई। दरअसल, केरल में मुस्लिम छात्रों के एक वर्ग ने चर्च द्वारा संचालित एक कॉलेज परिसर के भीतर ‘नमाज’ अदा करने की अनुमति नहीं दिए जाने का विरोध किया। विवाद तब खड़ा हुआ, जब यह दावा किया गया कि गैर-शिक्षण कर्मचारियों ने कुछ महिला छात्रों को संस्थान के एक कमरे में ‘जुमा की नमाज’ पढ़ने से रोका था। छात्रों ने इस मामले में प्रिंसिपल से माफी मांगने की मांग की और हंगामा खड़ा कर दिया। छात्रों ने दावा किया कि कई दिनों तक कॉलेज के स्‍टाफ ने उन्‍हें नमाज पढ़ने करने की अनुमति नहीं दी। यानी यह सिर्फ जुमा की नमाज का मसला नहीं था, बल्कि अन्य नमाज की भी मांग रही होगी, जबकि भारतीय मुस्लिम विद्वानों और इस्लामी न्यायविदों ने हमेशा मुसलमानों को सार्वजनिक स्थानों पर प्रार्थना करने से बचने की सलाह दी है। इस्लाम भी यही कहता है। क्या चर्च द्वारा संचालित वह कमरा मस्जिद की अवधारणा के अनुरूप है? क्या वह कमरा उन शर्तों को पूरा करता है, जिसे मस्जिद कहा जा सके? जुमा की नमाज तो केवल मस्जिद में ही पढ़ी जा सकती है, तो फिर कॉलेज परिसर के कमरे में नमाज पढ़ने की जिद क्यों? अगर ऐसे में यह सवाल कोई पूछे कि क्या कोई मुस्लिम कॉलेज हिंदुओं या ईसाइयों को प्रार्थना करने के लिए कमरे देगा, तो मुसलमानों की क्या प्रतिक्रिया होगी? आखिर क्यों इस तरह का विवाद पैदा कर आम मुसलमानों के प्रति नकारात्मक माहौल बनाने की कोशिश की गई? एक तरफ तो खुद मुस्लिम महिलाएं मस्जिदों में नमाज पढ़ने की लड़ाई लड़ रही हैं और आप दूसरे धर्मों के संस्थानों में नमाज की इजाजत चाहते हैं।
हालांकि, इस पूरे प्रकरण पर एक सुखद पहलू यह रहा कि जिम्मेदार मुसलमानों को यह बात गलत लगी। इस घटना पर मुस्लिम इबादतगाहों के एक संयुक्त प्रतिनिधिमंडल और मुस्लिम संगठनों ने कॉलेज प्रशासन से मुलाकात की और खेद जताया। दरअसल, यही होना चाहिए। अपनी गलतियों का एहसास इंसान को हो जाए और वह झुक जाए तो छोटा नहीं, बल्कि बड़ा बन जाता है। इस्लाम की सीख है कि धर्म को समझे बगैर ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए जो समाज में विभाजन पैदा करे। नमाज एक व्यक्तिगत आस्था और समयबद्ध धार्मिक प्रथा है इसलिए नमाज पढ़ने या इबादत करने के लिए जबरदस्ती करने की किसी को इजाजत नहीं है। इस्लाम सिखाता है कि ऐसी जगह पर इबादत करना मना है, जिसे जबरन हासिल किया गया हो। वैसे भी जुमा की नमाज मर्दों पर फर्ज है, जबकि महिलाओं के लिए वैकल्पिक है। इस्लाम में कजा नमाज पढ़ने का भी प्रावधान है, ताकि अगर किसी कारणवश नमाज छूट जाए तो बाद में कजा पढ़ी जा सके तो क्या कारोबार, नौकरी, शिक्षण, बीमारी, सफर इत्यादि में अक्सर नमाज नहीं छूटती है? आखिर कजा पढ़कर भरपाई की ही जाती है तो फिर सार्वजनिक स्थानों पर नमाज पढ़ने की यह जिद क्यों? मुसलमानों को इस तरह के तमाम विवादों और हठधर्मिता से बचने की जरूरत है, वरना नफरत के सौदागर घात लगाए बैठे ही हैं।

(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)

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