मुख्यपृष्ठस्तंभइस्लाम की बात : रामनवमी पर हिंसा और मुस्लिम समाज!

इस्लाम की बात : रामनवमी पर हिंसा और मुस्लिम समाज!

सैयद सलमान

इस वर्ष रामनवमी पर निकाली गई शोभा यात्रा के दौरान देश के विभिन्न राज्यों से हैरतअंगेज, वीभत्स, दुखद और उन्मादी हिंसा की घटनाएं सामने आई हैं। सवाल उठ रहे हैं कि संबंधित राज्य सरकार और स्थानीय पुलिस प्रशासन ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए पहले से ही सतर्क क्यों नहीं रहता और दो समुदायों के बीच हिंसा भड़कने का इंतजार क्यों करता है? हिंसा की ऐसी घटनाओं पर सियासी रोटी सेंकते हुए एक-दूसरे पर दोषारोपण करना रिवाज बन चुका है। कहना गलत नहीं होगा कि समाज और राष्ट्र में तेजी से फैलाई जा रही और धीरे-धीरे पनपती जा रही संकीर्ण सांप्रदायिक व्यवस्था न्याय के घेरे से बाहर होती जा रही है। देशभर में सांप्रदायिक हिंसा से जुड़ी घटनाओं के पैटर्न से पता चलता है कि कुछ मखसूस सियासी पार्टियों की योजना आम चुनाव तक मूल मुद्दों से भटकाकर मतदाताओं के दिमाग में सांप्रदायिक जहर घोलते रहने की है। सांप्रदायिक हिंसा चुनावी बहुमत हासिल करने के लिए सबसे शक्तिशाली उपकरण के रूप में काम करती है। पिछले कुछ महीनों में जिन राज्यों में चुनाव हुए, वहां ऐसे ही वातावरण को छोटी-बड़ी घटनाओं से दूषित करने का काम किया गया। हिंदुओं और मुसलमानों के बीच हुई झड़पों को एक-दूसरे के मुकाबिल खड़ा करने की कामयाब साजिश कहा जा सकता है।
लोग सवाल उठाते हैं कि हिंदू-मुसलमान के बीच दंगों की स्थिति सिर्फ उन राज्य से क्यों आती हैं, जिस राज्य में भाजपा की सरकार नहीं है? या वहीं की खबरें ज्यादा क्यों प्रसारित की जाती हैं? अधिकांश लोगों का मानना है कि दंगा करने वाले ज्यादातर उसी दल या संगठन से जुड़े लोग होते हैं, जो नहीं चाहते कि गैर भाजपा शासित प्रदेशों में शांति बनी रहे। गैर भाजपा शासित राज्यों में उपद्रव करवा कर वोटबैंक की राजनीति करना इन दलों के लिए फायदे का सौदा है। गौर करने वाली बात है कि रामनवमी का जुलूस मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के जन्म की खुशी में मनाने के लिए निकलता है। लेकिन रामनवमी के जुलूस में महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे की तस्वीरें लेकर चलने का मतलब क्या है? यह कैसा धार्मिक जुलूस है, जिसमें दूसरे धर्म को गालियां दें या हवा में तमंचे लहराएं? दूसरे धर्म को काटे जाने का एलान किया जाए। ‘मुल्ले काटे जाएंगे’ और ‘सिर तन से जुदा’ जैसे नारों ने देश का बेड़ा गर्क कर रखा है। ऐसा भी नहीं है कि मुसलमान दूध के धुले हैं। उनके बीच भी सांप्रदायिक सोच को बढ़ावा देनेवाले बड़ी संख्या में मौजूद हैं। हालांकि, दोनों समाज में अधिकांश लोग तोड़ने में नहीं, बल्कि जोड़ने में ही विश्वास करते हैं। लेकिन उनकी सुनता कौन है। कुछ उन्मादी और हिंसक ताकतें समूची कौम पर दाग लगाती हैं, जिनको राजनीतिक स्वार्थ की भेंट चढ़ाया जाता है। ऐसे में रोजगार और शिक्षा को लेकर ‘हर घर शिक्षा’ और ‘हर हाथ को काम’ जैसे बड़े-बड़े दावे करनेवाले प्रधानमंत्री मोदी की ‘चुप्पी’ को क्या समझा जाए? देश के नागरिकों का मुखिया होने के नाते उन्हें इस विषय पर बोलना चाहिए था।
अगले माह कर्नाटक में चुनाव हैं। देशभर के दंगों को उससे भी जोड़कर देखा जा रहा है। ऐसा मुमकिन भी है, क्योंकि दंगे बहुत सी बातों और मुद्दों को भुला देते हैं। कई विपक्षी पार्टियों के नेताओं के बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, सरकारी तंत्र के दुरुपयोग से जुड़े सवालात दंगों के शोर वाली खबरों में गुम हो जाते हैं। एक बात तो स्पष्ट है कि कर्नाटक चुनाव भाजपा शत-प्रतिशत हार रही है और इसी हार के डर ने उसे मूल मुद्दों से भटकाने के लिए तरह-तरह के हथकंडों का सहारा लेने पर मजबूर किया है। मुस्लिम समाज इस साजिश को समझे। अपने नौजवानों के साथ सख्ती से पेश आए। उन्हें किसी भी हिंसक गतिविधि में शामिल होने से रोके। उनका मनोवैज्ञानिक तरीके से ब्रेन वॉश करे कि हिंसा से कोई नतीजा नहीं निकलता। किसी भी मुस्लिम नौजवान के हाथ में ‘पत्थर’ देखते ही ‘थप्पड़’ लगाने का हौसला दिखाएं। यह थप्पड़ उसकी भलाई के लिए है जो उसे सही रास्ता दिखाएगा। याद रहे, दंगों में हिंदू या मुसलमान नहीं, गरीब मारे जाते हैं। गरीबों की दुकान और मकान जलाए जाते हैं। वही दुकान और मकान जिसकी तामीर में मेहनतकश गरीब अपना खून-पसीना एक कर देता है। लाशें बिछती हैं तो न जाने कैसे दंगाइयों का कलेजा नहीं कांपता। काश मुल्क के नौजवान इस मर्म को समझ सकें।
(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)

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