सैयद सलमान
हमारे देश में कई प्रांत, भाषा, जाति, धर्म और वर्ग का समावेश है। मिली-जुली संस्कृति हमारी पहचान है। लगभग हर समाज में अनेक सामाजिक प्रथाएं हैं तो कुप्रथाएं भी हैं, जो अक्सर अखबारों में सुर्खियां बनकर सामने आती हैं। बाल विवाह, बहुविवाह और दहेज प्रथा के अलावा विधवाओं की दुर्दशा और महिलाओं को प्रताड़ित किया जाना भी लगभग हर समाज में आम है। कुछ कुप्रथाओं से निजात मिलती भी है तो कुछ जाहिल इसे अपनाए रखने का हर यत्न करते हैं। अफसोस की बात है कि मुस्लिम समाज में सामाजिक सुधार और विशेषकर महिलाओं की स्थिति में सुधार के लिए कभी कोई बड़ा आंदोलन नहीं हुआ। हालांकि, इस्लाम महिलाओं को बराबरी का दर्जा देता है। मुस्लिम महिलाओं को विवाह में सहमति के अधिकार सहित पुनर्विवाह, संपत्ति में अधिकार, तलाक और खुल’अ लेने जैसे कई हक दिए गए हैं। पूर्व-इस्लामिक अरब समाजों में, महिलाओं को एक बोझ के रूप में देखा जाता था। बच्चियों को पैदा होते ही मार देने की रवायत आम थी। महिलाओं की स्थिति बेहद दर्दनाक थी। वह अपनी क्षमताओं से ज्यादा, अधिकारों और जिम्मेदारियों के बिना, एक दर्दनाक और विनाशकारी जीवन जीती थीं। महिलाओं को अक्सर बेकार और मात्र उपभोग की वस्तु समझा जाता था। तत्पश्चात इस्लाम का उदय हुआ और ईशदूत कहे जाने वाले पैगंबर मोहम्मद साहब ने महिलाओं को उनकी भयानक और शर्मनाक स्थिति से बाहर निकाला और उन्हें एक गरिमापूर्ण जीवन देने का काम किया। स्वर्ग-नर्क की व्याख्या हजारों वर्षों से चली आ रही है। उसी धागे को पकड़ते हुए मोहम्मद साहब ने ऐलान किया, ‘जिस किसी की बेटी होगी और वह उसे जिंदा दफन नहीं करेगा, उसका अपमान नहीं करेगा और बेटे के प्रेम में बेटी का तिरस्कार नहीं करेगा, वह मेरे साथ स्वर्ग में प्रवेश करेगा।’ अब भला नबी के साथ स्वर्ग कौन नहीं जाना चाहेगा। इस्लाम और मोहम्मद साहब ने शिक्षा दी कि महिलाओं को प्यार से रखा जाए, चाहे वे लाडली बेटियां हों, बहनें हों या प्यार करने वाली पत्नियां हों या आदरणीय माताएं हों। अब यह सवाल अलग है कि कोई जो इस्लाम के ही विपरीत बर्ताव करे तो क्या वह मुसलमान भी कहलाने का हक रखता है?
इस्लाम के पैगंबर की शिक्षा वर्तमान के हिसाब से भी कई मायनों में इस्लामी समाज के बीच महिलाओं के महत्व की आमतौर पर स्वीकृत छवि के बिल्कुल विपरीत है। मोहम्मद साहब के पहले की रूढ़ियों और भ्रांतियों को आज भी कई तरीके से अपनाया जाता है। महिलाओं के शोषण के अलग-अलग तरीके हैं। हालांकि, मुसलमानों के लिहाज से इस्लाम के आगमन के साथ, उस युग का अंधकार समाप्त हो जाना चाहिए था, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा हुआ नहीं। इस्लाम ने लड़कियों के प्रति दया, प्रेम और करुणा के साथ पेश आने का आदेश दिया। इस्लाम ने लड़कियों की अच्छी देखभाल को प्रोत्साहित करने और उनके पालन-पोषण में विशेष ध्यान देने को कहा। बारीकी से अध्ययन किया जाए तो इस्लामी कानून के अनुसार, पुरुषों और महिलाओं की जिम्मेदारियां और अधिकार के मामले एक समान हैं। पुरुषों और महिलाओं से अलग-अलग मामलों में कुछ विशेष भूमिका निभाने की अपेक्षा जरूर की जाती है, लेकिन इनमें से कोई भी महिलाओं के महत्व को कम नहीं करता है। महिलाओं के भरण-पोषण की पूरी जिम्मेदारी मर्दों पर ही है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि पुरुष वर्ग महिलाओं को अपना गुलाम समझे या उन्हें कमतर आंके। महिलाओं को पुरुषों के समान ही शिक्षा का अधिकार है। इस्लाम में मां के रिश्ते की महानता को निरूपित करते हुए कहा गया है मां की गोद पहली दर्सगाह यानी पाठशाला होती है। मां के कदमों तले जन्नत की संकल्पना भी इस्लाम में है। मां, बेटी, बहन, बीवी से मुस्कुराकर प्यार से बात करने को भी सवाब के दर्जे में शामिल किया गया है।
कुरआन में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि मां के प्रति कृतज्ञ होने का अर्थ है ईश्वर के प्रति कृतज्ञ होना। कुरआन में अपनी पत्नी के साथ अच्छा व्यवहार करने को कहा गया है। बेटियों और बहनों के लिए कहा गया कि जिस घर में बेटियां व बहनें हैं और उनके साथ अच्छा व्यवहार होता है तो ऐसा करनेवाले को स्वर्ग मिलेगा तथा कयामत के दिन वह मोहम्मद साहब के साथ होगा। यही नहीं इस्लाम में विधवाओं की भावनाओं का बहुत ख्याल रखा गया है। उनकी देखभाल करना और उन पर खर्च करना पुण्य माना गया है अर्थात इस्लाम में महिलाओं की एक स्वतंत्र पहचान है। इस्लाम में महिला अपने आप में एक जिम्मेदार शख्सियत है और अपनी नैतिक और आध्यात्मिक जिम्मेदारियों को सहज रूप से स्वीकार करते हुए उसे निभाने के लिए स्वतंत्र है।
(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)