मुख्यपृष्ठस्तंभइस्लाम की बात : मुस्लिम राजनीति की बदलती सोच

इस्लाम की बात : मुस्लिम राजनीति की बदलती सोच

सैयद सलमान मुंबई

पांच राज्यों के चुनाव संपन्न हुए। राजस्थान और छत्तीसगढ़ में बड़ा उलटफेर हुआ। कांग्रेस शासित दोनों राज्यों में कांग्रेस को पराजित करते हुए भाजपा की बड़ी जीत हुई। मध्य प्रदेश में भाजपा ने अपना किला बचाए रखा। तेलंगाना में परिवर्तन हुआ, जहां बीआरएस को पराजय का सामना करना पड़ा और कांग्रेस ने सत्ता प्राप्त कर ली। मिजोरम में भी जोरम पीपुल्स मूवमेंट ने भाजपा के सहयोग से चल रही सत्ताधारी मिजो नेशनल फ्रंट को सत्ता से बेदखल कर दिया। इन चुनावों में अगर देखा जाए तो तीन बड़े राज्य भाजपा की झोली में गए। कांग्रेस ने हिंदी भाषी एक राज्य गंवाकर दक्षिण की तरफ दूसरे राज्य में परचम लहराया। पूर्वोत्तर के मिजोरम में स्थानीय राजनीति हावी रही, जहां एनडीए को मुंह की खानी पड़ी। जहां तक इस चुनाव को लोकसभा चुनाव से पहले का सेमी फाइनल बताया जा रहा था, तो पलड़ा भाजपा का भारी रहा। इन चुनावों में जमकर हिंदू-मुसलमान के नाम पर ध्रुवीकरण किया गया और नतीजा सामने है। भाजपा ने कांग्रेस शासित राजस्थान के कई मामलों में मुसलमानों के प्रति नरमी का आरोप लगाया। मुसलमानों को खुश करने का आरोप लगाते हुए यहां तक कहा गया कि हिंदुओं के तीज-त्योहारों, जुलूस और अन्य प्रदर्शनों पर प्रतिबंध लगाया गया है। तेलंगाना में अमित शाह और जे.पी. नड्डा समेत कई नेताओं ने केसीआर और कांग्रेस पर मुस्लिम तुष्टीकरण के आरोप लगाए। मध्य प्रदेश के चुनावी रण में एमआईएम ने कई सीटों पर चुनाव लड़कर भाजपा के खेल को आसान किया।
मध्य प्रदेश की मुस्लिम आबादी सात फीसदी है, जिसमें थोड़ा बहुत ही सही, लेकिन वोटों का बिखराव साफ दिखाई दिया। एमआईएम ने माहौल बनाकर भावनाओं को भड़काया और यह चीज कांग्रेस के खिलाफ गई। समाजवादी पार्टी और बसपा ने भी कांग्रेस की ही जड़ों में मट्ठा डालने का काम किया। कांग्रेस से अच्छी-खासी संख्या में टिकट पानेवाले मुस्लिम उम्मीदवारों की वजह से अनुमान लगाया जा रहा था कि राजस्थान विधानसभा चुनाव में मुस्लिम समाज के वोट एकमुश्त कांग्रेस को मिलेंगे। लेकिन एमआईएम, सीपीआई (एमएल), समाजवादी पार्टी, सीपीआई, आम आदमी पार्टी और बीएसपी को ठीक-ठाक मिले वोटों ने कांग्रेस को नुकसान पहुंचाया। राजस्थान में ५ कांग्रेस और १ निर्दलीय उम्मीदवार ने जीत हासिल की। निर्दलीय विधायक बने यूनुस खान भाजपा नेता रहे हैं, लेकिन टिकट नहीं मिलने पर उन्होंने निर्दलीय चुनाव लड़कर जीत हासिल की। कांग्रेस के टिकट पर चुनावी समर में उतरे १० मुस्लिम प्रत्याशी दूसरे नंबर पर रहे। यानी राजस्थान विधानसभा चुनाव में मुस्लिम प्रतिनिधित्व मध्य प्रदेश से बेहतर रहा। तेलंगाना विधानसभा चुनाव में मुस्लिम वोट एमआईएम और कांग्रेस के बीच बंटते दिखे। एआईएमआईएम ने तेलंगाना में अपनी सातों सीट बरकरार रखी। पार्टी का गढ़ मानी जानेवाली अपनी परंपरागत सीट पुराने हैदराबाद शहर पर भी उसने कब्जा कायम रखा। हालांकि, एआईएमआईएम ने ११९ सदस्यीय विधानसभा के लिए हुए चुनावों में केवल ९ सीट पर ही अपने उम्मीदवार उतारे थे। हालांकि, पार्टी का वोट शेयर जरूर घटा है। इसके बावजूद कांग्रेस ने सत्ता प्राप्त करने में सफलता पाई यह बड़ी बात है। कर्नाटक के बाद तेलंगाना के नतीजे बताते हैं कि मुसलमानों का उन क्षेत्रीय दलों पर भरोसा कम हो रहा है जिनके साथ वह बरसों से रहा है। वह कांग्रेस को एकतरफा वोट देकर राष्ट्रीय राजनीति में उसकी भूमिका मजबूत करना चाहता है। यह स्थिति कांग्रेस के साथ गठबंधन करनेवालों के लिए फायदेमंद हो सकती है। जहां तक बात छत्तीसगढ़ की है तो वहां कांग्रेस का सॉफ्ट हिंदुत्व भाजपा के ब्रांड हिंदुत्व के सामने पराजित हो गया। मिजोरम में मुसलमानों के मतों की कोई निर्णायक भूमिका ही नहीं थी।
कुल मिलाकर, नतीजों को देखकर इस बात के संकेत मिल रहे हैं कि मुस्लिम मतदाता एकजुट होना तो चाह रहे हैं, लेकिन वोटों में थोड़ा बिखराव होता भी दिख रहा है। अगले लोकसभा चुनाव में इसका क्या असर पड़ता है यह अभी से कहना मुश्किल है। भाजपा को हराने की धुन में मुसलमानों ने कई जगह मजबूत उम्मीदवारों को चुनने के बजाय भावनाओं में बहकर अन्य पार्टियों को वोट दिया है। हालांकि, यह बुरी बात नहीं है कि लोकतंत्र में किसी एक पार्टी का पिछलग्गू बनने की बजाय किसी और का भी साथ दिया जाए, लेकिन जब बात किसी एक को हराने की हो तो उसी पार्टी के पक्ष में जाया जाए, जिसमें जीतने की कूवत हो। लेकिन उसके ‘साइड इफेक्ट’ के लिए भी तैयार रहना चाहिए जो भाजपा को फायदा पहुंचाता है। नतीजों से यह भी साफ होता है कि मुस्लिम तुष्टीकरण का आरोप झेल रही पार्टियां भाजपा के आरोपों का काउंटर नहीं कर पाईं। दूसरा अल्पसंख्यक तुष्टीकरण के आरोपों के कारण बहुसंख्यक मतों में समानांतर ध्रुवीकरण हुआ। मुस्लिम समाज को इस पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है।
(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)

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