सैयद सलमान मुंबई
मेहनत इस्लाम का
बुनियादी उसूल
सोशल मीडिया पर पिछले दिनों इस्लाम और मुसलमानों के हालात पर बहस चल रही थी। इन दिनों यह सबसे आसान विषय है, जिस पर मुसलमानों का जितना एतराज आएगा, बहस उतनी ही तीखी होती जाएगी। फिर बात अल्लाह, उसके रसूल और पवित्र कुरआन शरीफ की बेअदबी तक पहुंच जाएगी। एक नेरेटिव सेट हो जाएगा और मुसलमान उस ट्रैप से निकल नहीं पाएगा। बात जिस पोस्ट पर बहस की हो रही है, उसमें किसी ने पोस्ट किया कि इस्लाम में गरीबी समाप्त करने का फॉर्मूला है। कुछ लोगों ने अपनी-अपनी टिप्पणियों में आपत्ति जताई कि इस्लामी फॉर्मूला आज भी असफल क्यों है? कुछ ने यहां तक कह दिया कि इस्लाम गरीबी का समर्थन करता है। हालांकि, यह बहस बेमानी थी, लेकिन प्रश्न तो उठता है कि आखिर ऐसा क्यों है और मुसलमानों की बड़ी आबादी आज भी गरीबी रेखा के नीचे जीने पर मजबूर क्यों है? सच्चर कमिटी की रिपोर्ट इस बात की तस्दीक भी करती है।
जवाब के बहुत से पहलू हो सकते हैं। एक प्रसिद्ध हदीस/घटना है कि एक व्यक्ति पैगंबर मोहम्मद साहब के पास आया और अपनी आर्थिक कठिनाई की समस्या बताई। पैगंबर मोहम्मद साहब ने उस शख्स को एक कुल्हाड़ी खरीदकर दी और कहा कि जंगल में जाओ, लकड़ी काटो और उसे बाजार में बेचकर अपनी आजीविका चलाओ। कुछ दिनों बाद वह फिर लौटा और उसने बताया कि अब उसे किसी चीज की जरूरत नहीं है। यानी मोहम्मद साहब ने आर्थिक मदद न करते हुए उस शख्स को रोजगार मुहैया करने में मदद की। आर्थिक मदद चंद दिनों के लिए मिलती, लेकिन उस शख्स को रोजगार मिल गया। आर्थिक मदद मिलने पर उन पैसों से कुल्हाड़ी खरीदने के बजाय वह शख्स खाली बैठकर खाता रहता और जब पैसा खत्म हो जाता तो वह फिर से आर्थिक मदद की गुहार लगाना शुरू कर देता। वह कोई जिम्मेदारी नहीं लेता। यानी मेहनत करना इस्लाम के बुनियादी उसूलों में से एक है। यदि सौ लोग कमाने वाले हों और हजार लोग भीख मांगने वाले हों तो दान संस्थाएं कितने समय तक और कितनों की मदद कर पाएंगी? अर्थात यदि गरीबी का उन्मूलन नहीं हो रहा है तो समस्या प्राप्तकर्ता में है।
ऐसे गरीबी दूर नहीं होगी
जहां तक बात गरीबी की है तो गरीबी हर समाज में मौजूद है, कुछ को छोड़कर और जहां गरीबी नहीं है, वहां भी उनका फॉर्मूला वही होना चाहिए कि अगर गरीबी आए तो जो सहायता मिले, उससे मेहनत करो। बस बैठकर मत खाओ। यदि किसी परिवार में दस लोग हैं तो कम से कम पांच लोग कमानेवाले होने चाहिए और यहां तो दस लोग एक व्यक्ति पर निर्भर हैं। इस्लाम ने महिलाओं को काम करने से नहीं रोका। बुजुर्गों को रिटायरमेंट की उम्र के बाद अपने अंतिम वर्षों में नमाज पढ़ने और मस्जिद तक ही सीमित रहने को नहीं कहा। यहां तक कि एक सेवानिवृत्त व्यक्ति भी दिन में एक या दो घंटे कुछ सरल काम कर सकता है। महिलाएं घर से काम कर सकती हैं। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि व्यवसाय के लिए जितनी धनराशि की आवश्यकता होती है, उतनी दान में नहीं मिलती। सबसे पहले, मीडिया ने सारे राज उजागर कर दिए हैं कि फकीर माफिया रोजाना कितना कमाता है और दूसरी बात, यह काम कार धोने से भी हो सकता है, इसके लिए बस कुछ कपड़े, एक वाइपर, एक बाल्टी आदि की जरूरत होती है। इसी तरह किसी के घर या दुकान की सफाई, या मजदूरी भी की जा सकती है। इन लोगों की मांग हमेशा रहती है, लेकिन कोई भी इनके लिए काम करने को तैयार नहीं होता। मेहनत से जी चुराकर तो गरीबी दूर नहीं होगी।
इस्लाम पर तोहमत!
इस्लाम पर यह आरोप कि वह गरीबी को बढ़ावा देता है, पूरी तरह निराधार है। इस्लाम सम्मान और कड़ी मेहनत का समर्थन करता है। लेकिन अफसोस कि इस्लाम को कुछ स्वार्थी मौलवियों के हाथों बेच दिया गया है। असली इस्लाम किसी के सामने नहीं है। अपने आपको समृद्ध करने के लिए मौलवियों ने ऐसे विचारों और विश्वासों का प्रचार किया कि लोगों की आस्था नष्ट हो गई। उनको कुछ भी समझ नहीं आता। पहले तो कोई भी व्यक्ति मेहनत नहीं करता और यदि कोई करता भी है तो वह व्यर्थ चला जाता है तथा उसकी पूंजी बेकार के कर्मकांडों में निवेशित हो जाती है। अगर उसी का निजाम बन जाए कि हर हाथ को काम दिया जाएगा, लोगों को मेहनत का महत्व समझाया जाएगा, हाथ फैलाने की जगह रोजी-रोजगार का महत्व समझाया जाएगा, शिक्षा को रोजगारोन्मुख बनाया जाएगा तो शायद ग़ुरबत पर जीत हासिल करना आसान हो जाए। जरूरत मुसलमानों में बेदारी की है। आस-पास के माहौल को बदलिए, पूरा मुआशरा बदलाव की बयार को महसूस करेगा।
(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)