मुख्यपृष्ठग्लैमर‘यह मेरा भ्रम था!’-सौरभ शुक्ला

‘यह मेरा भ्रम था!’-सौरभ शुक्ला

फिल्म ‘सत्या’, ‘बैंडिट क्वीन’, ‘नायक द रियल हीरो’, ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’, ‘किक’, ‘दृश्यम’, ‘बर्फी’, ‘जॉली एलएलबी’ जैसी फिल्मों में एक से बढ़कर एक यादगार किरदार निभानेवाले सौरभ शुक्ला इन दिनों ‘यह काली काली आंखें’ वेब सीरीज की शूटिंग में व्यस्त हैं। स्टेज से जुड़े सौरभ शुक्ला ने नाटक लिखने के साथ ही उनका निर्देशन भी किया और करीबी दोस्तों के लिए उन्होंने फिल्मों में गीत भी लिखा। पेश है, सौरभ शुक्ला से पूजा सामंत की हुई बातचीत के प्रमुख अंश-

 आप अपनी किन यादों को शेयर करना चाहते हैं?
मेरा जन्म गोरखपुर में हुआ। जब मैं दो वर्ष का था तभी मेरा पूरा परिवार दिल्ली शिफ्ट हो गया। इसके बाद कभी गोरखपुर नहीं जाना हुआ। मेरे परिवार में मुझसे दस वर्ष बड़ा मेरा भाई है। मां जोगमाया शुक्ला और पिताजी शत्रुघ्न शुक्ला संगीत के अध्यापक हैं। मेरी मां दुनिया की पहली महिला तबला वादक हैं। मैंने अपनी मां के गर्भ से ही संगीत सीखा यह कहना गलत नहीं होगा। लेकिन कभी संगीत को करियर बनाने की मेरी इच्छा नहीं हुई। दिल्ली में हमारे घर कई गायक और संगीतकारों का आना-जाना लगा रहता। माता-पिता ने हम दोनों भाइयों को अच्छा पढ़ाया-लिखाया। मैंने और भाई ने कॉमर्स में डिग्री ली। पिछले कुछ वर्षों से मेरा भाई अमेरिका में रहता है। मेरे माता-पिता अब जीवित नहीं हैं। उन्होंने हमें यह आजादी दे रखी थी कि हम जिस क्षेत्र में करियर बनाना चाहें बना सकते हैं।

अभिनय में करियर बनाने के बारे में आपने कब सोचा?
हम बहुत अमीर थे ऐसा नहीं था। मध्यमवर्गीय परिवार में जैसे परवरिश होती है कुछ वैसी ही हमारी परवरिश हुई। पिताजी पूरे परिवार के साथ शनिवार और रविवार को हमें फिल्म दिखाने ले जाते थे। शनिवार को हिंदी और रविवार को वे हमें अंग्रेजी फिल्म दिखाते थे। फिल्मों को देखने के बाद मनोरंजन के अलावा हमें एक व्यापक दृष्टिकोण मिला। फिल्में देखने के बाद उस पर अच्छी-खासी चर्चा घर में होती। इस तरह फिल्मों के प्रति चाहत निर्माण हुई। फिल्म को किस तरह लिखा जाना चाहिए, फिल्म का कमजोर पक्ष क्या है जैसे मुद्दों पर हम चर्चा करते।

 फिर अभिनय की तरफ आपका झुकाव कैसे शुरू हुआ?
कॉलेज के दौरान ही मैं कॉलेज में नाटकों में हिस्सा लेने लगा। मुझे लगता था कि मेरा व्यक्तित्व ‘हीरो’नुमा नहीं है। लिहाजा, अगले पड़ाव पर मैंने ‘नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा’ ज्वॉइन कर वहां प्ले करने लगा। एक दिन मेरा नाटक देखने शेखर कपूर आए और उन्होंने मुझे फिल्म ‘बैंडिट क्वीन’ का ऑफर देते हुए मुंबई बुलाया।

 क्या कभी काम न मिलने पर निराशा के पलों से आपको गुजरना पड़ा?
इस दुनिया में शायद ऐसा एक भी व्यक्ति न हो जिसे असफलता और निराशा न झेलनी पड़ी हो। मैं ‘सत्या’ जैसी सुपरहिट फिल्म का लेखक और एक्टर था। कल्लू मामा के किरदार ने मुझे बेहद शोहरत दी। मुझे लगा कि अब मेरे पास फिल्मों का अंबार लग जाएगा। मेरा नाम हर पुरस्कार के नॉमिनेशन में था। लेकिन यह मेरा भ्रम था। ‘सत्या’ की रिलीज के बाद कुछ ऑफर्स जो मेरे पास आए वे सभी बहुत सामान्य फिल्में और किरदार भी मामूली थे। मेरे लिए यह ताज्जुब का विषय था कि इतनी सफलता के बाद भी मुझे काम क्यों नहीं मिल रहा है। मैं काम की तलाश में मैं पूरे ६ साल घर बैठा रहा।

 आपने इंडस्ट्री के मेकर्स से मिलकर काम नहीं मांगा?
मेकर्स मेरी परफॉर्मेंस देख चुके हैं तो मैं उनसे मिलकर कहूंगा क्या? मैं एक्टर हूं, मुझे काम दीजिए? काम मांगना मेरी फितरत नहीं! मुझमें ईगो नहीं, लेकिन काम मांगना मेरा स्वभाव नहीं। जब दिल्ली से नया-नया मुंबई आया तो मैंने श्याम बेनेगल के ताड़देव ऑफिस जाकर उनसे काम मांगा था बस, बाकी किसी से मैंने कभी काम मांगा नहीं।

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