तरुवर पर बैठा पंछी कोई मल्हार गा रहा है
हरे-भरे वृक्षों की छाओं में बैठे हैं
पड़ोसी के बग़ीचे से चुपके से अंगूर तोड़ रहे हैं
बग़ल वाले भी हमारे पेड़ से गुप-चुप जामुन बेर खा रहे हैं
ऐसा हमारा आशियाना था
वो शाम-ओ-सहर की हलचल याद आती है
दौड़ के बर्फ से खेलना याद दिलाती है
वो चाँद तारे नज़र में आ जाते हैं
फेरन पहन के कांगड़ी सेकने का मौसम याद दिलाते हैं
ऐसा हमारे गुलिस्तां का महकना था
काली घटा छा जाती थी
बर्फ भारी शुरू हो जाती थी
वो पेड़ों से भरे हुए रास्ते और
बर्फ से ढ़के हुए पेड़
ऐसी सड़कों से हमारा गुज़रना था
वो बाहारों के मौसम में तालाब के अन्दर
बत्तखों का तैरता हुआ नज़ारा
ये जो घाटी पहाड़ों से भरी रहती है
ऐसी वादियों में बसर हमारा हुआ करता था
अन्नपूर्णा कौल, नोएडा