पंकज तिवारी
‘जागऽ होऽ बमभोला सबेर भवाऽ’ सवेरे-सवेरे ही गेरुआ वस्त्र धारण किए जोगी बाबा का यह गीत सुनकर मन सुकून से भर उठता था। आस-पास से लोग सुनने आ जाते थे। कभी-कभी तो घंटों बाबा गाते रहते थे और लोग मस्त होकर सुनते रहा करते थे। एक दिन की बात है भोलू भयानक वाली नींद में था, बाहर बड़ी ही मधुर आवाज लहराव के साथ उसके कानों तक जा रही थी। भैंस-गाय लगातार चोकर रहे थे। पेड़ों पर चिड़ियों का चहचहाना अचानक से बढ़ गया था। हवा भी शांत हो उसी आवाज के आगोश में समाई हुई थी।
भोलू भी उठ बैठा, दौड़कर दादी के पास गया। दादी, दादी देखो तो बाहर कोई आया हुआ है। बहुत ही सुरीली आवाज में गीत गाए जा रहा है। मन करता है कि लगातार उसे सुनता ही रहूं। ‘काउ…? काउ…?’ कई बार पूछना पड़ा दादी को। दादी कान से कम सुनती थीं। जब बात समझ में आई तो भाग कर मोहारे को आ गर्इं। बाएं हाथ में बड़ी सी सिरिंगी, दाहिने कंधे पर बड़ा सा झोला, पांव में पतला सा खड़ाऊं, दाएं हाथ में सिरिंगी बजाने के लिए छोटी सी छड़ी साथ ही मधुर कंठ से मधुर गीत गाते जोगी बाबा बिल्कुल अपने में ही खोए हुए लगातार गाए और बजाए जा रहे थे। आहहहहहहा… बिल्कुल ही मस्त होकर, भाव-विभोर होकर दादी गीत सुने जा रही थीं और बगल में ही बिल्ली भी बैठी हुई थी। दरवाजे पर कभी भी, कोई भी आता था निराश होकर नहीं जाता था। दादी दानवीर दादी थीं। खुद खाने को मिले न मिले लोगों को जरूर खिलाती थीं। जोगी बाबा को गाते देख दादी भर गिलास माठा लेकर आ गर्इं और बाबा को देते हुए वहीं ओसारे में बने ओटा पर बैठ जाने को बोलीं, जबकि बाकी लोग बाबा से और भी गाना सुनाने के लिए आग्रह कर रहे थे। जोगी बाबा एक से बढ़कर एक गाना सुनाए ही जा रहे थे। माठा पीने और गुड़ खाने के बाद अपने पेट पर हाथ फेरते बाबा पुन: गाने लगे थे। सुबह-सुबह पेड़ों पर कलरव करते चिड़ियों का झुंड, मदमस्त कर देती हवाओं के बीच सुरीले अंदाज में गाते बाबा जी के गीतों पर लोग फिदा हो गए थे। आनंद कई गुना बढ़ गया था। दादी ने उन्हें शाम को खाने का निमंत्रण दे दिया और साथ ही टोपा भर करके अनाज भी। जोगी बाबा मुस्कुराते हुए खूब फूलो-फलो, परिवार तरक्की करे का आशीर्वाद देकर आगे बढ़ गए, जबकि इधर ददा यह सारी करामात देखकर अंदर ही अंदर जले जा रहे थे, कुढ़े जा रहे थे। उन्हें दादी की यह सारी करामात बस तमाशा लगती थी, पर कर कुछ नहीं पा रहे थे। दादी के आगे बोलने की हिम्मत नहीं थी ददा में। दादी को पूरे गांव भर के लोग खूब मानते थे, खूब इज्जत करते थे जबकि ददा को देख लोग रास्ता बदल लिया करते थे। ‘जेकरे हिंया मरकहिया गाय, ओकरे दुअरवां केउ ना जाय’ वाली कहावत मशहूर थी ददा के बारे में। ददा और सभी के लिए मरकहिया गाय ही थे, जबकि दादी के सामने मामला बिल्कुल ही उलट होता था। दादी दान के मामले में कुछ भी नहीं सोचती थीं, जबकि ददा कई दिनों तक सो ही नहीं पाते थे, लेकिन चलता कहां था ददा का। चलना तो दादी का ही होता था। आज भी वही हुआ था जो दादी ने चाहा था। लोग जोगी बाबा के पीछे-पीछे तब तक उनके गाए गीतों को सुनते रहते जब तक कि बाबा गांव भर में घूमते रहते थे। कुछ घर ऐसे भी होते थे जहां बाबा के सामने ही घर का दरवाजा ही बंद कर दिया जाता था, पर बाबा के चेहरे पर भाव जरा सा भी नहीं बदलता था वो गाते हुए और सिरिंगी बजाते हुए ही दूसरे दरवाजे की तरफ मुड़ जाते थे, जबकि साथ चल रहे लोगों और बच्चों को गुस्सा भी आता था, पर बाबा सभी को समझा दिया करते थे- ‘बेटा देना-लेना हमारे तुम्हारे बस की बात नहीं है सब प्रभु की माया है, उनकी जो आज्ञा होगी वही होगा। हम आप तो बस रंगमंच पर अपने-अपने हिस्से का अभिनय कर रहे हैं, जिसको निर्देशित करनेवाले प्रभु ही हैं।’ लोग भाव-विभोर हुए बाबा के गीत के साथ ही बातों में भी डूबने लगे थे।
(लेखक बखार कला पत्रिका के संपादक एवं कवि, चित्रकार, कला समीक्षक हैं)