पंकज तिवारी
गांव खुशहाल था, गांव के लोग खुशहाल थे, गांव में समस्या तो थी पर मिल-बांटकर हल करने का रिवाज भी था। बच्चों की चहलकदमी, कौवा-बिल्ली, गाय-गोरू का परिवार के साथ का सामंजस्य, स्वच्छ हवा गांव को जीवंतता के चरम तक पहुंचा जाता था।
पेड़-पौधे, खेत-खलिहान, तालाब-कुएं आदि धरा के आभूषण थे। लोगों की मुस्कान गांव के बीमार लोगों की सबसे बढ़िया दवा थी। समय बदला और गांव पर धीरे-धीरे ग्रहण लगने लगा। गांव में बाजार बढ़ने लगा और समय के साथ ही महंगाई भी बढ़ने लगी थी। झूलन ददा इस बढ़ती मंहगाई से परेशान थे। गांव भर में कहीं भी बतकही चल रही हो, ददा बैठ ही जाते थे, बिन बुलाए मेहमान की तरह। विषय कुछ भी हो कान लगाकर, ध्यान लगाकर पहले सुनते थे। मौका लगते ही विषय बदलकर महंगाई पर पहुंच जाते और तब तक बोलते थे, तब तक बोलते थे जब तक कि सामने वाला हार न मान ले। ददा को ज्यादा बोलने की जैसे बीमारी सी लग गई थी और ये तब से शुरू हुआ था, जब ददा के खेत में आलू खूब हुआ था, दाम भी अच्छा-खासा था पर जैसे ही सारी आलू खनकर घर में आई और ददा आलू बेचने के लिए बनिया बुलाए पता चला दाम तो धड़ाम से गिर गया है, मात्र दो रुपैया हो गया था आलू का दाम। ददा जैसे पगला से गए, कोई भी पगला जाएगा ऐसी स्थिति में। ददा आलू सड़ने के लिए छोड़ दिए थे पर बेचे नहीं थे। सामने वाले की नजर में ददा की बातों की भले ही कोई अहमियत न हो पर ददा खुद को गांव ऊपर के होशियार समझते थे। ददा महंगाई को लेकर सरकार पर खूब कुढ़ते थे, खूब गरियाते थे पर जैसे ही चुनाव आता अपना मत बिना सोचे-समझे किसी को भी दे आते थे। गलती का आभास होने पर अगली बार ऐसा न करने की कसम भी खाते पर कसम पर टिकता कौन है? ददा भी नहीं टिक पाते थे। जो चीजें ददा अपने खेतों में पैदा करते थे मसलन धान, गेहूं, चना, मटर, आलू आदि के तो कुछ दाम ही नहीं मिलते, जबकि जो किसानों को खरीदना पड़ता वो आसमान में लटकता मिलता और यही कारण होता था कि ददा कायदे से अपनी बात रखने का प्रयास करते थे, पर बात रखनी किसके सामने है बिना ये सोचे ददा कहीं भी शुरू हो जाते थे। बढ़ती महंगाई में ही सिंचाई के लिए मशीन का भकुआ कर तेल पीना ददा को बहुत परेशान करता था। ददा अब डीजल की मशीन से खेत भरना बंद कर दिए थे। पैसा बहुत लगता था और पैसा खेती-किसानी में कहां धरा था उस जमाने में, धरा तो खैर अब भी नहीं है। अब सिंचाई के लिए बिजली के भरोसे थे ददा। खेती वहीं करते थे जहां आसपास बिजली वाली मशीन होती थी। बोलने के मामले में कितने भी मुंहफट थे ददा पर खेत को परती भी नहीं देख पाते थे। पूर्वजों का अपमान समझते थे। कतवारू की मशीन सेंवारे में लगी थी। सेंवार के बारे में बहुत कहानियां प्रसिद्ध थीं। कभी वहां रात के बारह बजे लुक्कारों के आपस में खेलने की बात होती तो कभी बड़कवा सियार और सियरनी की, कभी किसी ने कुछ देखा था तो कभी किसी ने कुछ। मनगढ़ंत कहानियां हवा में थीं सेंवार को लेकर। इन सभी कहानियों से भली-भांति परिचित भी थे ददा और डरते भी थे पर मजबूरी थी कि खेत को पानी चाहिए वो भी सस्ते में फिर तो विकल्प बिजली से चलने वाली मशीन ही थी। वहीं मशीन के पास ही गेहूं बोया था ददा ने। गेहूं को पहला पानी देना था। घंटों सिफारिश और पैरवी के बाद पानी के लिए समय मिला था, जबकि लाइन में कई लगे थे। नालियों को कायदे से कांट-छांट कर बढ़िया मेड़ बनाने के बाद तड़के सबेरे ही मशीन चलवा दिए थे ददा पर बिजली, गांव की बिजली काम कम आंख-मिचौली ज्यादा खेलती थी।
क्रमश:
(लेखक बखार कला पत्रिका के संपादक एवं कवि, चित्रकार, कला समीक्षक हैं)