मुख्यपृष्ठस्तंभकाहें बिसरा गांव : ठंढ के प्रकोप में कउड़ा का साथ

काहें बिसरा गांव : ठंढ के प्रकोप में कउड़ा का साथ

पंकज तिवारी
कोहरे के प्रकोप से पूरा गांव धुआं-धुआं हो गया था। ओसारे में से दलान और इनारा तक दिखाई नहीं पड़ रहे थे। गाय, भैंस के गले में बंधी घंटियां सुनाई तो पड़ रही थीं पर नजर नहीं आ रही थी। आजकल सूरज चचा भी बेबस से दिखाई पड़ने लगे थे, ऐसा लगने लगा था कि उनकी मां ने उनके लिए भी मोटा वाला स्वेटर बीन दिया है, जिसे पहनते ही प्रकाश कहीं दब सा जा रहा था। बेचारे प्रकाश बांट तो रहे थे पर रास्ते में ही बंदरबांट हो जा रहा था। धुंध का प्रकोप ऐसा था कि एक दुआरे कउड़ा पर बैठे लोग दूसरे दुआरे बैठे लोगों से बात तो कर ले रहे थे पर आंखें फाड़कर देखने के बाद भी बस धुआं ही देख पा रहे थे। नीम, जामुन, अमरूद के पेड़ से बदर-बदर की आवाज आ रही थी। धरती जैसे भीगी चादर ओढ़े सो रही हो और ओस घासों के साथ मिलकर जैसे चिढ़ाने में व्यस्त हो। खेत-खलिहान सब ‘भीगा-भीगा तन-मन है, भीगा-भीगा जीवन है’ गाने में व्यस्त थे‌।
बेचारी दादी कउड़ा बारे ओसारे में बैठी थी, हथेली की नसें बाहर आ जाने को आतुर दिख रही थीं। दादी मटर छीलने के लिए लेकर आई थी। निमोना बहुत पसंद है ददा को, अभी मटर को पीसना भी था पर दादी का मन तो कउड़ा के आंच से हटना ही नहीं चाह रहा था, मसलन मटर की छीमी वैसे ही धरी रह गयी थी‌। ददा शाम को बथुआ भी खोंट लाए थे पर उसमें समय लगेगा इसलिए रात को बनेगा, दादी की बात ददा को मानना ही पड़ा था। झूलन ददा दादी की हर बात मानते थे। हाथ-पैर धुलकर ददा भी आ गए। ठिठुरन इस कदर हावी थी कि दांत की किटकिटाहट साफ-साफ सुनी जा सकता था। चीखुर बीन कर ददा पहले ही जमा लिए थे। बंसवारी से, बगइचा से खरपतवार जो दादी बीनकर लाती थी सो अलग। पुअरा से बना बीड़ा कउड़ा के चारों तरफ धरा हुआ था। ओसारे में ही एकदम कोने पुअरा से ही दादी ने गोनरा सा कुछ बना दिया था। करियई कुकुर वहीं बच्चा दी थी और अब उन्हें अच्छे से पाल रही थी, बाकी बाहरी कुत्तों से बचाने के लिए तो दादी हमेशा सज्ज रहती थीं। खबर थी कि मौका पाते ही सियार भी दबोच लेते हैं पिल्लों को। उनका कुहुकना सुन ददा उधर ही चल पड़े। बच्चों को पुचकारने के बाद वापस आ गए और कउड़ा के बगल ही रखे बीड़े पर बैठ गये और बोल पड़े- ‘गोरुआरे में से भंइस, गाय निकालइ में निर्गति होइ जाथइ। राति कंई केतनउ पुअरा अउर राखी डारि दऽ मुला सबेरे कींचा में गोड़ धंसबइ करे। भंइसिउ लगाउब भारी होइ गवा बाऽ। कभंउ-कभंउ मन करथऽ कि कुलिन के छोड़ि के खेदि देई मुला फेरि दहिए, माठा, घीए क सुधि आइ जाथऽ। कींचा से धोतियउ खराब होइ जाथऽ। बरसीन क कटाई उहउ शीते में बहुतइ बवाल काम होथऽ, मुला काम त काम हउ करइ के पड़बइ करे।’ कड़कड़ाती ठंड से कांपते हाथ-पांव के बाद भी ददा लगातार गोरुआरी में व्यस्त रहते थे। बड़ी बात तो ये कि जहां सब तीन-तीन स्वेटरों के बीच गठरी जैसे दिखाई देने लगे थे, वहीं ददा सिर्फ बनियान और धोती पर ही बिल्कुल फुर्ती के साथ सारा काम निपटाये जा रहे थे। कउड़ा के पास बैठते ही ददा जैसे मगन हो उठे। कौन ऐसा होगा जो इस शीत लहर के भीषण प्रकोप वाले समय में कउड़ा को नजरअंदाज कर सके। पढ़ने वाले पढ़ाई भूल गए थे तो लोग अपना काम-धंधा सब बिसरा दिए थे। सभी बस जान बचाने के फेर में थे। ‘लड़िकन के हम छुइत नाहीं, सयान हयेन सब भाई, बुढ़वन के हम छोड़ित नाहीं केतनउ ओढ़ंइ रजाई’ ठंढ पर कहे गए इस कहावत का असर साफ दिखाई पड़ रहा था। बच्चे तो खेलते-कूदते दिख भी जाते थे पर बुजुर्गों के लिए समय बड़ा भारी था। जहां देखिए वहीं कउड़ा का बखान या कउड़ा चालीसा गाया जा रहा था। ददा को देखते ही दादी कउड़ा पर और चीखुर रख दी, कउड़ा भक्क से जल उठा।
क्रमश:
(लेखक बखार कला पत्रिका के संपादक एवं कवि, चित्रकार, कला समीक्षक हैं)

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