पंकज तिवारी
‘धनवा रोपऽ कमल के बाबू, हम तऽ भतवइ खाबइ नाऽ… हम तऽ भतवइ खाबइ नाऽ…!’
घुरहू कका ठिहुनी भर पानी वाले बीयड़ के खेत में दो ठु र्इंटा धर के बैठे हुए थे और आराम से बीयड़ उखाड़ने में मस्त लगे हुए थे। घाम सीधा मूड़े पर ही नाच रहा था। पसीना हांफते-हांफते बहा जा रहा था और अपने गति से अपना काम करता जा रहा था। उधर पीछे पलटू के खेत में कुकुर लोट-लोट के बीयड़ का पूरा सत्यानाश कर दिया था।
कका अपने सिर पर लपेट के पगड़ी ऐसे बांध लिए थे कि घाम को मूड़े में घुसने हेतु अच्छा-खासा संघर्ष करना पड़े और फिर गांव के लोग विशेषकर कका जइसन बहादुर बदे तऽ घामउ बेचारा थक-हार के पीछे भागि जाथ्यऽ अउर आपन जिउ बचावथ्यऽ। घाम वाले गरम पानी में कका छपकोरिया खेलते हुए अपने काम में लगे हुए थे और कजरी गाए जा रहे थे। काकी से तऽ बहुतै डरते थे कका, तबै अइसन कजरी गाए जा रहे थे। कका के बियाहउ बहुत देर से भवा रहा है और बियाहे के बादै से काम-धाम में कका को देखा जाने लगा है। पहले तो दिन-दिन भर रेडियो सइकिली पर गठियाए, गाना सुनते घूमते रहा करते थे। आटा-दाल का भाव तक नहीं पता था कका को। बेचारे ददा अकेले ही घर का सारा काम देखते थे। संझा तक काम सिराता ही नहीं था। कका के लिए देखुआर आते, देखते और जाते बखत गांव में किसी से कका के बारे में पूछ जाते, दुबारा अइबइ नहीं करते। बेचारे ददा तो निराश ही हो गए थे कि अब तो हमरे गदेलवा के रड़ुअइ ही रहइ के पड़े। ई तो भला हो झूले का और ‘हम तऽ भतवइ खाबइ ना’ कजरी का, जिसको सुनते ही काकी कका के गनवइ पर लहालोट हो गई थीं और बियाह की बात आगे बढ़ी थी। खैर, इस पर चर्चा फिर कभी आज तो बीयड़ अउर धान के रोपाई पर ही बात होना है। ‘जियऽ हो बेटवा लगा रहा लाल, आज मनई ताउ से मिलि गऽ हयेन कोशिश बा कि आज पूरा धान लगवाइ लेब। बस तू थामें रहऽ अइसइ लाल। बीयड़ कम जिनि होइ दऽ बस।’ पूरी तरीके से माटी में सने और पेट पर ट्रांजिस्टर बांधे बार खजुआते ददा अचानक पीछे आकर खड़े हो गए थे। लजा गए थे कका। ददा का काम इस खेत से, जहां धान लग रहा था उस खेत तक बीयड़ पहुंचाना था। सिर पर बीयड़ लादते और कमर पर बाजा बांधते ददा अपना काम किए जा रहे थे। ‘हां बाबू नाधे रहऽ सबके। हम हीऽलब न यंह से। बिना धान लगे हम उठब न आज’, सकुचाते हुए कका धीरे से बोल गए। ‘अरे हां बचई, ऊ सब त ठीक बा लेकिन गनवउ गावत रहाऽ। निक लागत बा हो अउर एसी कमवउ सैराए तोहार।’ मुस्कियाइ लागेन अउर मनइमन गदगद होइ गयेन कका तब तक काकी चना चबैना लिहे-दिहे आइ गइ। ददा को देख काकी घूंघट बढ़ा ली। बीयड़ वाले खेत तक पहुंचते-पहुंचते काकी भी माटी-माटी हो गई थी। ददा बिना कुछ बोले धीरे से बोझ बांधे और सिर पर धरे दूसरे खेत की ओर चल पड़े। कका अपने काम में इस प्रकार भिड़े हुए थे कि अभी तक काकी को देख ही नहीं पाए थे। फिर से छेड़ दिए कजरी की तान- हम त भतवइ खाबइ ना… हम त भतवइ खाबइ ना…। काकी पीछे खड़ी आराम से गाना सुन रही थीं। कका झूमते रहे और गाते रहे। गाना पूरा होते ही बड़ी जोर से हंसी काकी…। ‘चार गदेले होइ गयेन तबउ तूं नाइ बदलऽ, उहइ फक्कड़ई अबउ तक बा तोहरे साथेऽ…। अबइ तक उहइ गाना मतलब हमइ बदनाम कइके मनबऽ तू। का सही में रोटी नाइ खाइत हम।’ कका, काकी के देखतै मान फेरि लजाइ गयेन। काकी गुस्से में घूरती रही कका को, देर तक घूरती रही बेचारे कका नन्हें बच्चे की भांति एकटक निर्विकार भाव से निहारते रहे काकी को जैसे पूछ रहे हों- सरकार हमारी गलती क्याऽ है!
(लेखक बखार कला पत्रिका के संपादक एवं कवि, चित्रकार, कला समीक्षक हैं)