हर दिन सा निकला हूं घर से
अपनों की भूख मिटाने को
कंधों पर है बोझ कुटुंब का
बाप का फर्ज निभाने को
राह तके मेरा चौराहा
मंजिल तक मेरे आने को
बीत गए दो पहर यूं ही
कुछ मिला नहीं ले जाने को
सांझ हुई छा रहा अंधेरा
क्या दूं बच्चों को खाने को
होंगे मेरे इंतजार में
दिनभर का हाल सुनाने को
हर दिन सा निकला हूं घर से
अपनों की भूख मिटाने को।
-श्रवण चौधरी