डॉ. दीनदयाल मुरारका
पंजाब में लालचंद नामक एक समाज सुधारक थे, जिन्हें लोग राय साहब के नाम से जानते थे। उनके पास पुस्तकों का अकूत भंडार था। उन्होंने सोचा कि क्यों न वह अपने पुस्तकों का भंडार गुरुकुल को सौंप दें।
उन्होंने गुरुकुल के प्रमुख को पुस्तक ले जाने के संदर्भ में एक पत्र लिखा। पत्र पढ़कर गुरुकुल के प्रमुख ने स्वयं राय साहब के पास जाने का निश्चय किया। राय साहब के घर पहुंचकर उन्होंने दो-तीन बार दरवाजा खटखटाया। लेकिन हर तरफ सन्नाटा छाया हुआ था। उन्होंने दरवाजे को हाथ लगाया तो वह खुल गया। अंदर पहुंचकर उन्होंने देखा कि एक वृद्ध बीमार व्यक्ति पलंग पर लेटा हुआ है और दूसरा वृद्ध सेवक उनके पैर दबा रहा है। गुरुकुल प्रमुख ने वृद्ध सेवक से पूछा, राय साहब सो रहे हैं क्या? पैर दबाने वाला व्यक्ति बोला, कहिए क्या बात है? गुरुकुल प्रमुख बोले, राय साहब ने अपनी पुस्तकें हमारे गुरुकुल को दान करने के लिए हमें पत्र लिखा है। मैं गुरुकुल का प्रमुख हूं। प्रमुख का परिचय जानकर वृद्ध व्यक्ति बोले, आइए मैं ही लालचंद हूं। वृद्ध सेवक जैसा लगनेवाले व्यक्ति का परिचय जानकर गुरुकुल प्रमुख दंग रह गए। वह हैरानी से बोले, जिनके आप पैर दबा रहे थे वह कौन है? राय साहब बोले, वह मेरा सेवक है। बेचारा दो दिनों से बीमार है। यह जानकर गुरुकुल प्रमुख बुरी तरह चौंक गए और बोले अरे तो आप अपने सेवक के पैर दबा रहे थे। राय साहब बोले तो क्या हुआ? वह पिछले ४१ वर्षों से मेरे साथ है। वह हमेशा से मेरी सेवा करते आया है। यदि आज वह अस्वस्थ है, तो क्या मैं एक दिन भी उसकी सेवा नहीं कर सकता? सेवक हो या मालिक लेकिन है तो मनुष्य ही। एक मनुष्य होने के नाते मैं बुरे वक्त में दूसरे मनुष्य को वैâसे छोड़ दूं? यह सुनकर गुरुकुल प्रमुख उनके प्रति नतमस्तक हो गए।