डॉ. दीनदयाल मुरारका
गांधीजी उन दिनों सेवाग्राम आश्रम में रह रहे थे। दूर-दूर से लोग उनसे मिलने आते और अपने मन की बात उनके सामने रखकर उसका समाधान ले जाते। एक बार गांधीजी का परिचित एक धनी व्यक्ति उनसे मिलने पहुंचा। उसने दुखी मन से कहा, महात्मा जी आज समय बेईमानों का ही रह गया है। आप तो जानते हैं कि मैंने अमुक नगर में कितने प्रयत्नों के बाद लाखों रुपए खर्च करके धर्मशाला का निर्माण कराया था। अब कुछ गुटबाजों ने मुझे ही प्रबंध समिति से हटा दिया है। आप देखिए इन दिनों ऐसे लोग समिति में आ गए हैं, जिनका धर्म की दृष्टि से योगदान नगण्य है। मुझे तो समझ नहीं आ रहा है, मैं क्या करूं? इस संबंध में क्या, न्यायालय में मामला दर्ज कराना उचित होगा? उसकी बात सुनकर गांधीजी ने कहा, तुमने धर्मशाला धर्मार्थ कार्य के लिए बनाई थी या उसे व्यक्तिगत संपत्ति बनाए रखने के लोभ में ऐसा किया था? देखो असली धार्मिक कार्य तो वह होता है, जो बिना लोभ की इच्छा से किया गया हो, लेकिन मुझे लगता है तुम अभी तक नाम और प्रसिद्धि का लालच त्याग नहीं पाए हो इसलिए तुम उस धर्मशाला के प्रबंध समिति के पद से हटाए जाने से दुखी हो रहो हो। मेरी मानो तो आप धर्मशाला की प्रबंध समिति में पद और नाम की प्रसिद्धि के मोह को त्याग दो। इससे तुम्हारे मन को अपार शांति प्राप्त हो सकेगी। मनुष्य को जीवन में सदा निष्काम कर्म की ओर बढ़ना चाहिए। गांधीजी की बात सुनकर उस व्यक्ति ने संकल्प लिया कि वह भविष्य में किसी पद के लालच में नहीं पड़ेगा।