डॉ. दीनदयाल मुरारका
वर्ष १९०४ में चार्ली फ्रायड एंड्रूज इंग्लैंड से कैंब्रिज विश्वविद्यालय मिशन की ओर से भारत भेजे गए थे। यहां उन्होंने भारतीय संस्कृति का गहन अध्ययन किया। इसके बाद उनका संपर्क रवींद्रनाथ टैगोर से हुआ। वह शांतिनिकेतन पहुंचे तथा हिंदी भाषा, शिक्षा और भारतीय संस्कृति की सेवा के लिए समर्पित हो गए। कुछ समय बाद उन्हें पता चला कि फिजी में कुलियों के रूप में ले गए भारतीयों का उत्पीड़न शोषण करके करुणामूर्ति ईशा मसीह को कलंकित कर रहे हैं। यह उत्पीड़न तुरंत बंद करना होगा।
इस पर एक अंग्रेज बोला, यदि हम श्रमिकों का उत्पीड़न करते रहे तो आप क्या करेंगे? एंड्रयूज बोले, मैं धरना दूंगा और श्रमिकों के उत्पीड़न के खिलाफ पूरे विश्व में आवाज उ’ाऊंगा। दूसरा अंग्रेज बोला, यदि इतना होने पर भी श्रमिकों का उत्पीड़न नहीं रुक पाया तो आप क्या करेंगे? एंड्रूज ने कहा, मैं तब तक इसके खिलाफ आवाज उ’ाता रहूंगा, जब तक उनका उत्पीड़न पूरी तरह बंद नहीं हो जाता या मेरी मृत्यु नहीं हो जाती। अंग्रेज एंड्रूज की चुनौती देखकर घबरा गए। एंड्रूज ने शोषित भारतीय श्रमिकों की मुक्ति के लिए संघर्ष किया और अंतत: उन्हें सफलता मिली। फिजी में ही उन्हें सबसे पहले दीनबंधु की उपाधि से अलंकृत किया गया था। वहां से भारत लौटकर दीनबंधु एंड्रूज ने अपना संपूर्ण जीवन श्रमिकों के कल्याण के लिए समर्पित कर दिया।