डॉ. दीनदयाल मुरारका
स्वतंत्रता आंदोलन के समय की बात है। सरकारी शिक्षा संस्थाओं का बहिष्कार करना आंदोलन का एक हिस्सा था। ऐसी स्थितियों में विद्यार्थियों के लिए अच्छी शिक्षा-दीक्षा का उचित प्रबंध भी आवश्यक हो गया था। लेकिन बंगाल के आंदोलनकारियों के पास न तो इतना धन था, न ही सुविधाएं जिससे कि वह विद्यालय शुरू करके उसे चला सकें। निर्णय हुआ कि आपसी सहयोग से ऐसा कॉलेज खोला जाए। किसी तरह चंदा जमा किया गया।
आम लोगों से जितना कुछ बन सका, सबने सहयोग किया। फिर भी चंदे की राशि जो मिली वह काफी नहीं थी। आखिरकार, जैसे-तैसे एक कॉलेज खोला गया। लेकिन इसके लिए संचालक की आवश्यकता थी। उसकी नियुक्ति के लिए विज्ञापन दे दिए गए। संचालक का वेतन कुल ७५ रुपए मासिक तय किया गया। एक संचालक के लिए उस समय यह वेतन काफी नहीं था। किंतु प्रबंध समिति, संचालक को इससे अधिक वेतन देने की स्थिति में नहीं थी। खुद प्रबंध समिति के सदस्यों ने इस बात को स्वीकार किया कि शायद इस वेतन पर कोई भी काम करना स्वीकार न करे। विज्ञापन के जवाब में बहुत दिनों तक कहीं से कोई आवेदन नहीं आया तो प्रबंध समिति निराश हो गई।
मगर एक दिन अचानक एक ऐसे व्यक्ति का आवेदन पत्र आया। जिसकी किसी को भी कल्पना नहीं थी। बड़ौदा कॉलेज के अध्यक्ष अरविंद घोष जिन्हें कि उस समय अनेक सुख-सुविधाओं के साथ ७०० रुपए मासिक वेतन मिलता था। वे मात्र ७५ रुपए मासिक वेतन पर राष्ट्रीय महाविद्यालय का संचालक बनना स्वीकार कर लिया था। यह खबर सुनकर तत्कालीन सभी शिक्षार्थियों ने उनका बहुत आभार माना। बाद में इस महाविद्यालय से अनेक चोटी के देशभक्त एवं राजनेता निकले, जिन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और देश को स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए मदद की।