डॉ. दीनदयाल मुरारका
महर्षि रमण के पास दो धर्म प्रचारक आए। उन्होंने महर्षि को प्रणाम करके कहा- आप कहते हैं कि आपको प्रभु के दर्शन हो गए। आप हमें भी ईश्वर के दर्शन कराइए। महर्षि तैयार हो गए। वह उन्हें लेकर एक टूटी-फूटी झोपड़ी के पास पहुंचे। वहां रखा पानी का बर्तन खाली था।
जमीन पर कुष्ठ रोग से पीड़ित एक वृद्ध सोए हुए थे। महर्षि दोनों को दरवाजे पर खड़े रहने को कहकर अंदर आ गए। उन्होंने वहां सफाई की। फिर घड़े में पानी भरा। उसके बाद वृद्ध व्यक्ति के कान में प्रभु के नाम का उच्चारण कर उन्हें जगाया। महर्षि ने कहा, देखो सुबह हो गई है। सूरज कनक थाल लेकर आपके द्वार आया है। लेकिन वृद्ध के चेहरे पर प्रसन्नता और बदन में फुर्ती नहीं थी। महर्षि ने उन्हें नित्य कर्म से फारिग कराकर प्रसाद दिया और उनके घाव पर मरहम पट्टी की। फिर महर्षि ने वृद्ध से कहा- आइए प्रभु का ध्यान करें।
कुछ देर तक महर्षि और वृद्ध दोनों ने ध्यान किया। यह सब दोनों धर्म प्रचारक दूर से देख रहे थे। उनकी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी। उन्हें लग रहा था शायद अब महर्षि कुछ ऐसा करेंगे, जिससे प्रभु का दर्शन संभव हो सके। इधर महर्षि ने वृद्ध से पूछा क्या आपको प्रभु के दर्शन हुए? वृद्ध ने कहा, हां हुए। महर्षि ने फिर पूछा वह कैसे थे? उसने मुस्कुराकर कहा- बिल्कुल आप जैसे।
अब वृद्ध की बारी थी, उन्होंने पूछा- क्या आपको प्रभु के दर्शन हुए? महर्षि ने कहा, हुए। वृद्ध ने पूछा वह कैसे थे? महर्षि ने कहा- बिल्कुल आप जैसे। यह कह महर्षि धर्म प्रचारकों की ओर मुड़े और उन्होंने पूछा- क्या आप लोगों को प्रभु के दर्शन हुए? धर्म प्रचारकों ने कहा- हां हो गए एवं यह भी पता चला है कि प्रभु का द्वार चढ़ना हो तो उसका रास्ता सेवा की सीढ़ी से होकर गुजरता है। अत: मानव सेवा ही ईश्वर सेवा है।