मुख्यपृष्ठस्तंभकिस्सों का सबक : राजकुमार में परिवर्तन

किस्सों का सबक : राजकुमार में परिवर्तन

डॉ. दीनदयाल मुरारका

राजकुमार स्थावर सर्ग की उच्छृंखल वृत्तियों और उद्दंडता से जितना उनके पिता राजा दुमिल दुखी थे उससे अधिक वहां की प्रजा भी दुखी थी। महाराज दुमिल ने एक से एक विद्वान बुलाए, अच्छे-अच्छे नैतिक उपदेशों की व्यवस्था की, किंतु जिस तरह चिकने घड़े पर पानी का प्रभाव नहीं पड़ता, उसी प्रकार राजकुमार स्थावर सर्ग पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उनका वहीं रवैया जारी रहा।
अंत में महाराज दुमिल ने पूज्यपाद अश्वत्थ की शरण ली। प्रजा के हित की दृष्टि से महर्षि अश्वत्थ ने राजकुमार को ठीक करने का आश्वासन तो दे दिया, पर उन्होंने महाराज से स्पष्ट कह दिया कि उनकी किसी योजना में बाधा उत्पन्न नहीं की जानी चाहिए। महाराज अश्वत्थ ने उस शर्त को सहर्ष स्वीकार कर लिया। महर्षि अश्वत्थ की आज्ञा से सर्वप्रथम स्थावर सर्ग को राज्य से मिलनेवाली सभी सुविधाओं पर रोक लगा दी गई। उनके पास की सारी संपत्ति छीन ली और सम्राट की ओर से उन्हें बंदी बनाकर अपद्वीप पर निष्कासित कर दिया गया। यह वह स्थान था, जहां न तो पर्याप्त भोजन की उपलब्धता थी और न ही जल की। अति वृष्टि के कारण रात में सोना कठीन था। वहां दिन में हमेशा हिंसक जंतुओं का भय बना रहता था। कुछ दिनों में स्थावर सर्ग सूखकर कांटा हो गए। तब तक उनके मन में जो अहंकार था, वह प्रकृति की कठोर यातनाओं के आघात से टूटकर चकनाचूर हो गया। महाराज को इस बीच कई बार पुत्र के मोह ने सताया भी, पर वह अश्वत्थ को वचन दे चुके थे इसलिए कुछ बोल भी नहीं सकते थे। समय पूरा होने को आया। प्रकृति के संसर्ग में रहकर स्थावर सर्ग बदले और जब वे लौटकर आए, तो सबने उनका मुख मंडल दर्प से नहीं, करुणा व सौम्यता से दीप्तिमान देखा। जो काम मनुष्य नहीं कर सके, वह प्रकृति की दंड व्यवस्था ने पूरा कर दिखाया।

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