डॉ. दीनदयाल मुरारका
एक समय की बात है, सप्तद्वीप नवखंड में एक राजराजेश्वर नामक सम्राट राज करता था। राजा अपनी प्रजा को बहुत चाहता था। प्रजा का भी राजा पर बहुत विश्वास था। किंतु न जाने क्यों राजा को अपने समृद्ध जीवन से संतुष्टि नहीं थी। वह अपने वैभवशाली जीवन से ऊब गया था। एक दिन उसने अपने छोटी उम्र के पुत्र को बुलाकर उसे राज्य की बागडोर सौंप दी एवं स्वयं जंगल की ओर संन्यासियों की तरह जीवन बिताने निकल पड़ा। वन में वह बड़ा ही सात्विक जीवन जीता था। भोजन के लिए वह सिर्फ फलाहार पर ही निर्भर रहता था। किंतु फिर भी कई वर्षों की वन में साधना के बाद उसे शांति नहीं मिली। उसे अपने राज्य के बारे में कई बार खबरें आती थीं कि उसके वन में आने के बाद प्रजा परेशान रहने लगी है।
एक दिन इसी तरह चिंता में वह घूमते हुए एक खेत के पास रुक गया। वहां एक किसान हल चला रहा था। साधु के वेश में राजराजेश्वर को देखकर किसान ने उसे विनम्रतापूर्वक प्रणाम किया और पूछा, ‘बाबा, आप किस चीज की तलाश में घूम रहे हैं?’ राजा को कुछ नहीं सूझा और उसने कहा, ‘इस समय मुझे भूख ने व्याकुल कर रखा है।’ इस पर किसान ने जवाब दिया, ‘बाबा, पास ही में मेरी झोपड़ी है। उसमें भोजन की कच्ची सामग्री पड़ी है। आप वहां जाकर भोजन पकाकर ग्रहण कर लीजिए। मैं अपना काम बीच में नहीं छोड़ सकता। कर्म ही मेरे जीवन की पूजा है।’ किसान की बात सुनकर राजा हैरानी से उसे देखने लगा। खाना खाने के बाद वह किसान की बातों पर चिंतन करने लगा। उसने सोचा यदि किसान भी अपने कर्म के प्रति इतना समर्पित है, तो उसने अपना राज्य चलाने का दायित्व छोड़कर अच्छा नहीं किया। प्रजा की सेवा करते समय जो संतोष उसे मिलता था।