मुख्यपृष्ठस्तंभकिस्सों का सबक : प्रभु भक्ति का आनंद

किस्सों का सबक : प्रभु भक्ति का आनंद

डॉ. दीनदयाल मुरारका

बादशाह दाराशिकोह के यहां मुंशी वनवारीदास जी लिखा-पढ़ी का काम करते थे। वे बड़े ही ईमानदार और कार्य कुशल थे। एक बार उनके ऊपर आर्थिक संकट आ गया। तब उन्होंने बादशाह के नाम आर्थिक सहायता के लिए प्रार्थना-पत्र लिखा और उसे लेकर बादशाह के पास गए। वे बादशाह के आगे अपना प्रार्थना-पत्र लिए करीब दो घंटे तक खड़े रहे, किंतु बादशाह दूसरे ही कामों में उलझा रहा। उन्होंने मुंशी की ओर देखा तक नहीं तथा यह भी नहीं पूछा कि आप यहां क्यों आए हो? मुंशी जी के मन में बड़ा भारी दुख हुआ।
उनके मन में आया कि यदि इतनी देर मैं ईश्वर के सामने प्रार्थना करता तो प्रभु मेरी प्रार्थना सुन लेते एवं मेरे सभी संकट दूर हो जाते। बादशाह को जब यह खबर लगी तो वे तुरंत उनके पास आए और बोले कि जितना तुम्हारा सामान था, उससे दोगना सामान मैं तुम्हें दे दूंगा। तुम कहीं मत जाओ।
पर मुंशी ने उनकी बात नहीं मानी। दिल्ली से निकलकर वे मेवाड़ की ओर चले गए और वहां एक पहाड़ पर रहकर ईश्वर भक्ति में लीन हो गए। एक वर्ष के बाद बादशाह अपनी सेना के सहित उधर से निकले तो किसी ने उन्हें बताया कि इस पहाड़ी पर एक महान त्यागी संत वनवारीदास रहते हैं। बादशाह उनके दर्शन करने पहुंचे। बादशाह ने उन्हें पहचान लिया एवं उन्हें प्रणाम करते हुए कहा, आप शाही सुविधाएं छोड़कर यहां जंगल में अकेले रहते हैं। इसमें आपको क्या लाभ होता है? वनवारीदास ने कहा कि एक बार हम प्रार्थना-पत्र लेकर दो घंटे तक आपके सामने खड़े रहे, पर आपने मेरी ओर देखा तक नहीं, वहीं आज आप मेरे सामने खड़े हो और हमें आपकी कोई परवाह नहीं। आगे जो भी हो, वह तो ईश्वर के अधीन है। यह सुनकर बादशाह उनके सामने नतमस्तक हो गए और बोले आप सच्चे संत हैं। मेरे लिए सेवा की आज्ञा दीजिए।

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