डॉ. दीनदयाल मुरारका
बात उस समय की है जब बाजीराव पेशवा की सेना ने निजाम की सेना को चारों ओर से घेर लिया था। इससे निजाम की सेना को रसद और हथियार मिलने के सारे रास्ते बंद हो गए और सेना के भोजन में कमी आ गई। संयोगवश उसी समय निजाम के सैनिकों का त्योहार आ गया। घेरे में पड़े निजाम के शिविरों में भूखों मरने की नौबत आ गई।
निजाम की सेना को कहीं से रसद-पानी न मिलता देख निजाम ने पेशवा को पत्र लिखा। क्या हमारे सिपाहियों को त्योहार के दिन भी भूखा मरना पड़ेगा? आपके यहां तो सभी धर्मों को बराबर महत्व दिया जाता है। हमने सुना है कि पेशवा बहादुर होने के साथ-साथ रहम दिल भी है। वे भूखे लोगों को खाना खिलाते हैं और अपने भूखें दुश्मनों पर वार नहीं करते। पेशवा ने इस पत्र को कई बार पढ़ा और काफी सोचने के बाद उन्होंने इस पत्र को अपने दरबार के सामने रखा। दरबार के सभी मंत्रियों ने पत्र पढ़ा। इसके बाद आपस में विचार-विमर्श किया और बोले, ‘निजाम पर दया करना ठीक नहीं है। चाहे वह भूखे-प्यासे हो या उनका त्योहार हो। लेकिन है तो, हमारे दुश्मन ही। दुश्मनों को हमें कभी भी कमजोर नहीं समझना चाहिए और न ही उस पर दया करनी चाहिए।’ सभी मंत्रियों की बात सुनकर पेशवा बोले, ‘मराठे वीर हैं, पर इसके साथ ही मनुष्य भी हैं। वीरता कहती है कि शत्रु को पराजित करना चाहिए। लेकिन मानवता का तकाजा यह है कि भूखे मनुष्य को भोजन दिया जाए। यदि भोजन और पानी न मिलने से वह पहले ही कमजोर हो जाए, तो उसे पराजित करना कोई बड़ी बात नहीं। वह हमारी सच्ची वीरता नहीं होगी।’ पेशवा की आज्ञा से निजाम के पास रसद और पानी की गाड़ियां भेज दी गईं। पेशवा के इस निर्णय से निजाम के मन में पेशवा के प्रति श्रद्धा बढ़ गई।