रासबिहारी पांडेय
लेखक / फिल्मकार सागर सरहदी यदि जीवित होते तो हम इस महीने उनकी ९०वीं सालगिरह मना रहे होते! दो वर्ष पहले वे इस फानी ए दुनिया से कूच कर गए। उन्हें प्रसिद्धि फिल्म लेखक/निर्देशक के रूप में मिली, मगर वे स्वयं को रंगमंच की दुनिया का आदमी मानते थे। वे कहते थे कि भिंडी बाजार का कोई आदमी पृथ्वी थिएटर में ५०० का टिकट लेकर नाटक देखने नहीं आएगा। इसलिए मैं जन सरोकार वाले नाटक आम आदमी के बीच में जाकर प्रâी करना चाहता था। मगर अफसोस इस रास्ते पर मैं ताउम्र नहीं चल सका, क्योंकि एक कामयाब प्ले राइटर होने के बावजूद मेरी मासिक आमदनी २,००० रु. भी नहीं हो सकी। सागर साहब के लिखे नाटकों में राजेश खन्ना, संजीव कुमार और बलराज साहनी जैसे बड़े अदाकारों ने भी काम किया, तब उनकी शुरुआत थी। उनके लिखे अजनबी, तन्हाई, भूखे भजन न होय गुपाला, दस्तक, मसीहा, भगत सिंह की वापसी, राज दरबार, एक बंगला बना न्यारा, एक शाम और गुजर गई, एहसास की चुभन, ये कौन आया, सरिता के नाम, मौत के खुशगवार साये आदि नाटक बहुचर्चित रहे। इनमें से कुछ नाटकों का निर्देशन उन्होंने स्वयं किया और कुछ नाटकों का निर्देशन आर के शर्मा ने किया, जो राजेश खन्ना के गुरु हुआ करते थे।
सागर साहब उर्दू के ड्रामे लिखकर थिएटर करते हुए बहुत खुश थे, यह उनके मन का काम था, इससे उन्हें दिली खुशी मिलती थी, मगर जिंदगी में गुजर बसर करने के लिए यह नाकाफी था… ऐसे में उनका एक प्ले देखकर जब यश चोपड़ा ने उन्हें ‘कभी कभी’ लिखने का ऑफर दिया तो वे ठुकरा नहीं सके। इस काम को उन्होंने एक चुनौती की तरह लिया और फिल्म लिखने से पहले इस क्राफ्ट को समझने के लिए दुनियाभर की बेहतरीन फिल्में देखीं। उनको यह पता था कि ढेर सारे लेखक फिल्में फ्लॉप होने की वजह से इस इंडस्ट्री से आउट हो जाते हैं। इसलिए फ्लॉप राइटर का दाग उनके माथे पर न लगने पाए, इसके लिए उन्होंने भरपूर मेहनत की। यही वजह है कि उनकी लिखी फिल्में न सिर्फ कमर्शियल रूप से सफल हुर्इं बल्कि फिल्म क्रिटिक्स ने भी उनकी खूब तारीफ की। यश चोपड़ा के लिए उन्होंने चार फिल्में लिखीं- कभी कभी, सिलसिला, चांदनी और फासले। शाहरुख खान और रितिक रोशन जिस पहली फिल्म के रिलीज के तुरंत बाद (दीवाना और कहो न प्यार है) सुपर स्टार बन गए, उससे भी सागर सरहदी का नाम संवाद लेखक के रूप में जुड़ा रहा। उन्हें सबसे ज्यादा चर्चा मिली उनकी अपनी बनाई फिल्म बाजार के लिए, फिल्म के गीत और संवाद लोग आज भी याद करते हैं। बीस साल पहले उन्होंने रामजन्म पाठक की कहानी बंदूक पर चौसर नाम से एक फिल्म बनाई जिसमें नवाजुद्दीन सिद्दीकी को पहली बार एक बड़ा रोल दिया था, मगर वह फिल्म आज तक डब्बे में पड़ी है।
सागर साहब को साहित्यिक लेखक के रूप में अपनी पहचान न बना पाने की खलिश जीवनभर सालती रही। वे कहते थे कि इतनी सारी शोहरत के बावजूद मैं बर्बाद हो गया, सिनेमा की दुनिया में इस तरह उलझा कि अपने लिए कुछ नहीं कर सका। मेरी दस अच्छी किताबें आतीं तो अदब में मेरा एक मुकाम बनता। सिनेमा का लेखन सामूहिक पसंद का काम है, वहां काम करते हुए कई लोगों की पसंद-नापसंद का खयाल रखना पड़ता है। यहां तक भी ठीक है, मगर यहां रिपीटेसन बहुत है। बार-बार एक ही तरह की बातें लिखनी पड़ती हैं। मैं थिएटर से गया था, मुझमें हर बार कुछ अलग, कुछ नया करने की चाहत थी, जो वहां संभव नहीं हो पाया।
(लेखक वरिष्ठ कवि व साहित्यकार हैं।)