मुख्यपृष्ठस्तंभलिटरेचर प्वाइंट : मार्च का वित्तीय प्रदूषण!

लिटरेचर प्वाइंट : मार्च का वित्तीय प्रदूषण!

रासबिहारी पांडेय

३१ मार्च अजीब शै है। एक तरह से यह सरकारी कार्यालयों के लिए दिवाली का दिन है, जिस दिन वर्ष भर के तमाम खाते-बही, हिसाब-किताब रद्द कर नए बना लिए जाते हैं। भूल-चूक, लेनी-देनी और शुभ-लाभ लिखकर फिर से शुरू होता है सारा हिसाब-किताब। सब कुछ व्यापारियों की तरह होता है, गणेश लक्ष्मी की पूजा कर लड्डू का भोग भर नहीं लगाया जाता।
सरकारी खाते में एक लाख हो या एक करोड़, इस दिन तक येन-केन प्रकारेण समाप्त करना ही है। अगर खाते में धनराशि बची हुई दिखा दी गई तो अगले वर्ष उतना पैसा कम करके ही नया बजट मिलेगा। आगे से उस रकम से अधिक मांगने का मुंह भी न रहेगा, इसलिए अधिकारियों को बहुत दिमाग दौड़ाना पड़ता है कि बजट को किस तरह समाप्त किया जाए, ताकि अपनी जेब भी गर्म हो जाए और कागजी घोड़े पर काम भी आगे दौड़ जाए। डरपोक किस्म के अधिकारी जहां मार्च तक अपना बजट बचाकर धीरे-धीरे खर्च करने में यकीन रखते हैं, वहीं दादा टाइप पैरवी पहुंचवाले अधिकारी मार्च से पहले ही डब्बा गोल कर देते हैं, साथ ही अपनी पहुंच के कारण अगले सत्र में बजट बढ़ा लेने में भी सफल रहते हैं। लाख दिमाग खपाने पर भी यह समझ में नहीं आता कि यह बाध्यता क्यों रखी गई है? हां, सीधे-सीधे यह जरूर समझ में आता है कि अगर नियम ऐसा नहीं होगा तो इन ऑफिसों में काम करनेवालों की ऊपरी आमदनी (जिसे पान-फूल, भेंट, बख्शीश के नाम से जाना जाता है) जरूर प्रभावित हो सकती है। ३१ मार्च का ही प्रताप है कि सारा लेन-देन बराबर हो जाता है। ऐसे कुछ ही विभाग हैं, जहां पैसे मार्च के बाद भी बचे रह जाते हैं लेकिन ऐसा तभी होता है, जब संस्थान में एक से अधिक असंतुष्ट पाए जाते हैं। ये असंतुष्ट लोग न तो स्वयं पैसे खाते हैं, न ही दूसरों को खाने देते हैं। उन संस्थानों में भी पैसे बचे रह जाते हैं, जिनमें कुछ घाघ किस्म के अधिकारी होते हैं। ये अधिकारी मौका देखकर सारा माल अकेले हड़पने के चक्कर में रहते हैं। अक्सर इन्हें मौका मिल भी जाता है, लेकिन मौका नहीं मिलता तो रकम धरी की धरी रह जाती है। उप और सहायक अधिकारी ताक-झांक करते रह जाते हैं। सर्वोच्च अधिकारी से भला कौन पंगा ले? अधिकाधिक उप और सहायक तो `इफ कीजिए न बट कीजिए, जो साहब कहें उसे झट कीजिए’ फॉर्मूले के पक्षधर होते हैं। बॉस को नाराज करके आफत कौन मोल ले। जैसे कुछ विद्यार्थी वर्ष भर पढ़ाई से जी चुराकर मनमानी कार्यों में लगे रहते हैं और परीक्षा की तिथि आते ही `काकचेष्टा बकोध्यानम्’ वाली स्थिति में आ जाते हैं, मार्च में ठीक वही स्थिति सरकारी कर्मचारियों/अधिकारियों की होती है। ज्यादा माथापच्ची तो क्लर्क, किरानी और टाइपिस्टों को ही करनी पड़ती है, लेकिन मुख्य अधिकारी को कार्यालय में समय से आने-जाने के साथ कार्यालय में पूरा समय देना पड़ता है। उनके लिए यही सजा हो जाती है। समय से सोना, समय से खाना और समय से कार्यालय आना… वह अधिकारी ही क्या, जो समय का मोहताज हो जाए। समय तो अधिकारी का मोहताज हुआ करता है, जब जो चाहा किया। नेताओं की तरह चुनाव वाला कोई मामला तो है नहीं कि भविष्य की चिंता में घुलें। एक बार आ गए तो `साठा तब पाठा’ कहावत चरितार्थ करके ही घर लौटना है। मार्च महीने की एक और खासियत है। यह आयकर, वृत्तकर, जलकर, प्रॉपर्टी टैक्स आदि जितने प्रकार के कर हैं, उन्हें साथ लेकर आता है। आपको कुछ नहीं करना है, विभागवाले आपके एकाउंट से स्वयं सब हिसाब कर लेंगे। पूंजीपतियों का इनकम टैक्स भले ही लाखों में बकाया हो, आपका टैक्स वसूलने में कोई कोताही नहीं होगी। मार्च महीने का यह वित्तीय प्रदूषण देश की हवा में घुल रहे वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण आदि से कम खतरनाक नहीं है। इसकी निगरानी के लिए भी एक अलग विभाग बनाने की जरूरत है।

(लेखक वरिष्ठ कवि व साहित्यकार हैं।)

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