रासबिहारी पांडेय
गत दिनों वरिष्ठ कवि विजय ‘अरुण’ के गजल संग्रह ‘गजल कमल गजल गुलाब’ का लोकार्पण समारोह चित्रनगरी संवाद मंच द्वारा संपन्न हुआ। ८७ वर्ष की उम्र में उनका यह पहला गजल संकलन छाया हुआ है, हालांकि कई समवेत संकलनों में उनकी रचनाएं पहले भी प्रकाशित हो चुकी हैं और देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में भी समय-समय पर छपती रहती हैं। उनसे उन शायरों को सबक लेना चाहिए जो शोहरत की तलब में अपने अधपके अशआर तुरत-फुरत में किताब की शक्ल में ढाल देते हैं। यही नहीं संकलनों की संख्या बढ़ाने के लिए भी बेचैन रहते हैं। सोशल मीडिया पर ऐसे शायरों की बाढ़ आई हुई है।
‘गजल कमल गजल गुलाब’ में हिंदी और उर्दू की कुल १८८ गजलें संग्रहीत हैं, ९४ गजलें हिंदी की और इतनी ही उर्दू की हैं। इनमें जीवन और जगत के तमाम रहस्य उद्घाटित हुए हैं।
संसार को दुखालय कहा गया है क्योंकि यहां सुख की अपेक्षा दुख के लम्हे कहीं अधिक होते हैं, इस बात को शेर की शक्ल में पुख्ता उदाहरण के साथ वे कहते हैं-
दुख की निस्बत सुख बहुत ही कम है इस संसार में हो महाभारत कि रामायण यही पाया गया।
कोई कलाविद जब किसी सामंत का गुलाम हो जाए तो विजय ‘अरुण’ की नजर में उसकी कला साधना में खोट आ जाती है- कलाविद जब किसी सामंत की जागीर हो जाए तो उसकी ही कला उसके लिए जंजीर हो जाए।
मनुष्य को देवता और दानव से श्रेष्ठ सिद्ध करते हुए वे कहते हैं- कोई है देव तो कोई है दानव सृष्टि रचना में
मैं इन दोनों सिरों को जोड़ता हूं और मानव हूं।
योग और प्राणायाम में हिंदू मुस्लिम कोण ढूंढने वालों के लिए वे कहते हैं-
मैं तो करता हूं ‘अरुण’ तुमसे जरा योग की बात
और तुम बीच में इस्लाम को ले आते हो।
दीपक और आतिशबाजी की उपयोगिता का अत्यंत बारीक विश्लेषण करते हुए वे कहते हैं-
हम दीपक ही बनें ‘अरुण’ जी और अंधेरा दूर करें
आतिशबाजी का क्या बनना जो एक पल का जलवा हो।
कोरोना वायरस की भयावहता और उससे भी कहीं अधिक लेजर की लड़ाई की कल्पना करते हुए शायर कहता है-
कब बचपन में यह सोचा था यह भी मंजर देखेंगे,
जंग बिना ही मरेंगे लाखों मातम घर-घर देखेंगे?
मरेंगे लोग न खंजर से अब लोग मरेंगे लेजर से
किन्हीं अजायब घरों में ही अब रक्खे खंजर देखेंगे।
अमीरी आ जाने पर कुछ लोगों की जबान तल्ख हो जाती है। ऐसे लोगों के लिए वे कहते हैं-
इन शरीफों को नहीं बात भी करने की तमीज़
जो हो तहजीब से खाली वो शराफत वैâसी?
दौलत की किस्मत पर तंज करते हुए वे कहते हैं-
उससे इज्जत भी है शोहरत भी है और ताकत भी है
ऐ ‘अरुण’ पाई है दौलत ने भी किस्मत वैâसी?
संग्रह में कुछ हास्य व्यंग्य की गजलें भी शामिल हैं। नए युग के मजनूं और विवाहित पुरुष की भागदौड़ को अपने शेर में वे कुछ यूं चित्रित करते हैं-
इसे देखिए, यह है नए समय का छैला
कपड़ा जिसका घिसा पिटा और मैला-मैला।
वह है पुरुष विवाहित काम से जब घर लौटे
दौड़ा जाए, हाथ में हो भाजी का थैला।
आधुनिक नेता के पारिवारिक जीवन और शायर की मुफलिसी पर तंज करते हुए वे कहते हैं-
गुंडा इक बेटा था अब इक है वकील
अब मेरे लीडर को कोई डर नहीं।
की ‘अरुण’ ने तोबा गुरबत के सबब
शैख तेरे दीन से डरकर नहीं।
उनकी गजलें प्रेम, श्रृंगार, अध्यात्म और युगबोध की चाशनी में पगी हैं। पाठकों के लिए ‘गजल कमल गजल गुलाब’ एक अनुपम सौगात है। पुस्तक अमेजॉन पर उपलब्ध है।