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लिटरेचर प्वाइंट : जीवन से कला की तरफ बढ़ें, कला से जीवन की तरफ नहीं!

रासबिहारी पांडेय
जब कोई अपना मरता है तो थोड़े-थोड़े हम भी मर जाते हैं। जो लोग हमारे दिलों के करीब होते हैं, उनसे हमें संजीवनी मिलती है। कथाकार/संवाद लेखक हृदय लानी की असमय मृत्यु से एक ऐसी ही रिक्ति आ गई है, जिसका भविष्य में कोई विकल्प संभव नहीं है। विकल्प दुनियावी चीजों का ही हो सकता है। कवि, लेखक या कलाकार अपने आप में अद्वितीय होता है, उसकी भरपाई कोई और नहीं कर सकता। लानी ने न सिर्फ अग्निसाक्षी, यशवंत, प्रहार, आर या पार, हीरो हीरालाल, युगपुरुष, सरफरोश जैसी व्यावसायिक फिल्मों के लिए संवाद लिखे बल्कि गमन, मिर्च मसाला, सलीम लंगड़े पर मत रो, सलाम बॉम्बे और सरदार जैसी समानांतर फिल्मों के भी संवाद लिखे। इससे उनकी लेखन क्षमता का पता चलता है। सन १९९९ में सरफरोश फिल्म के लिए उन्हें अपने साथी लेखक पथिक वत्स के साथ सर्वश्रेष्ठ संवाद लेखक का फिल्म फेयर पुरस्कार भी मिला।
वे एक अरसे तक मुंबई के मीरा रोड उपनगर में रहे। एक बार उनके घर जाने का संयोग बना। किसी पत्रिका के लिए उनसे साक्षात्कार करना था, तबसे उनसे दोस्ती हो गई थी। जब-तब फोन पर बातें होती रहीं। `दोपहर का सामना’ में छपने वाले मेरे इस स्तंभ के वे नियमित पाठक थे। मेरे छेड़े हुए मुद्दों पर वे अपनी राय रखते थे, इसी बहाने हम संपर्क में बने रहते थे। बहुत पहले एक बार मैंने उनसे पूछा था कि आपका नाम इतनी बड़ी फिल्मों से जुड़ा है फिर भी आपको मीरा रोड में रहना पड़ रहा है तो उन्होंने हंसते हुए कहा कि मेरा अपना फ्लैट तो मीरा रोड में भी नहीं है। यह भी किराए का घर है। थोड़े पैसे हुए तो मैंने कल्याण में एक फ्लैट ले लिया था। फिल्मी सिटिंग्स के लिए वहां से आना-जाना दूर पड़ता है इसलिए इधर रहना मजबूरी है। इधर कुछ सालों से वे कल्याण में ही रहने लगे थे। निर्माता निर्देशकों से उनकी दो शिकायतें थीं। पहली यह कि वे स्क्रिप्ट बहुत कम समय में चाहते हैं, दूसरी यह कि कम से कम पैसा देना चाहते हैं। यही लोग एक्टर्स को मुंह मांगी रकम अग्रिम तौर पर देने के लिए तैयार रहते हैं; यह जानते हुए भी कि अगर स्क्रिप्ट अच्छी नहीं होगी तो एक्टर कुछ नहीं कर पाएगा। लानी की कहानियां हिंदी की कई साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में भी छप चुकी थीं। मैंने उनसे पूछा कि आप इतने अच्छे कथाकार हैं लेकिन फिल्मों में सिर्फ संवाद ही लिखते हैं, अपनी कहानियां निर्माता निर्देशकों को क्यों नहीं सुनाते? इसके जवाब में उन्होंने बताया कि हिंदी फिल्मों के निर्माता, निर्देशक हिंदी प्रदेश की कहानियों पर फिल्में बनाने में कोई रुचि नहीं रखते। दूसरी सबसे आपत्तिजनक बात यह होती है कि कहानी सुनने का उनका तरीका बड़ा अजीब होता है। टिप्पणियां और विमर्श तो और भी आपत्तिजनक! चार बार फोन रिसीव करेंगे…बोलेंगे…रुकिए जरा, फिर कहेंगे अब सुनाइए। शुरुआती दौर में दो-चार बार मैंने यह सब झेला फिर तौबा कर लिया। अब सीधे बोल देता हूं कि आप कहानी सुनाइए या लिखित रूप से दीजिए; मैं उसकी पटकथा/संवाद लिखूंगा। जिन लोगों को काम करवाना होता है, वही संपर्क करते हैं, टाइम पास करने वाले नहीं मिलते। उनको पता होता है कि लिखवाने के लिए एग्रीमेंट करना होगा, पैसे देने होंगे। वे कहते थे कि लेखक हों या निर्देशक जो फिल्मों से फिल्में बनाना सीखते हैं, वे पिष्टपेषण ही करते हैं; कुछ नया नहीं कर पाते। जीवन से कला की तरफ बढ़ना चाहिए न कि कला से जीवन की तरफ।

 

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