रासबिहारी पांडेय
फिलहाल आजादी का अमृत महोत्सव चल रहा है। हम आजादी के ७६वें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं। साहित्य, संगीत और कलाओं के गौरवशाली परंपरा को अक्षुण्ण रखने के लिए भारत सरकार की ओर से देशभर में भिन्न-भिन्न कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं। देश की सांस्कृतिक धरोहरों और विरासतों से आम जन को जोड़ने के नाम पर सरकारी तिजोरी से करोड़ों खर्च किए जा रहे हैं। यह सब जरूरी है, लेकिन इस अमृत काल में जश्न मनाने के साथ-साथ हमें सिंहावलोकन और आत्मचिंतन की भी खासी जरूरत है।
भारतीय इतिहास में कलंक की तरह मौजूद सांप्रदायिक दंगों और उसमें हुई भयानक क्रूरताओं को पीछे छोड़ते हुए मणिपुर में हुई भयानक हिंसा और बलात्कार की घटना ने जन-जन के मन में दहशत भर दी है। किसी जमाने में कश्मीरी पंडितों के साथ ऐसा सुलूक पाकिस्तान समर्थक अलगाववादी ताकतें कर रही थीं। धारा-३७० हटने के बाद भी कश्मीर की धरती को आतंक से पूरी तरह मुक्ति नहीं मिल पाई है। मणिपुर और बांग्लादेश के बीच वीजा पासपोर्ट के बिना आवागमन की सुविधा और हजारों किलोमीटर में पैâली हुई खुली सरहद की सीमा ने यहां का माहौल बिगाड़ने में अहम भूमिका निभाई है। बांग्लादेश से आकर लोग बसते गए और यहां के स्थानीय जनजातियों से उनका विद्वेष बढ़ता गया। शुरुआती दौर में लगाम नहीं लगाई जा सकी, जिसके कारण जख्म नासूर में बदलता गया।
डेढ़ हजार वर्ष पहले जब मुगल और पठान, हूण और शक, यूनानी, अरब, तुर्क, पुर्तगाली और अंग्रेज भारत आए और भारत को आसानी से बार-बार हराकर अपना राज कायम कर सके तो उसके अन्य प्रमुख कारणों में एक यह भी था कि भारत जाति प्रथा के कारण आपसी विद्वेष, घृणा और दुश्मनी का शिकार था। जातिगत भेदभाव की वजह से ही भारत कभी एक सूत्र में बंधा नहीं रह सका, हम एक-दूसरे से लड़ते रहे। यदि हम जाति, भाषा, प्रांत के भेदभाव में बंटे बिना मानवता के मजबूत किले में रहते तो ये बाहरी ताकतें हमारा बाल भी बांका नहीं कर पातीं। जातिवाद और सांप्रदायिकता कम-से-कम पांच सौ वर्षों से हमारे देश को नेस्तनाबूद करने और हमारी गंगा-जमुनी संस्कृति को तोड़ने में लगी है। बाहरी दुश्मनों से कहीं ज्यादा खतरा घर के भेदियों से रहता है। साम्राज्यवाद बड़ा खतरा है, लेकिन बाहरी है। अपना जमीर बेच चुके हमारे बीच के ही कुछ उद्यमी उसके एजेंट हैं।
हमें एक-दूसरे के प्रति सम्मान और सद्भावना को बढ़ाना होगा। परस्पर विश्वास बढ़ाना होगा, तभी हम अपने घर में घुसे दुश्मनों की पहचान कर पाएंगे, कलह से मुक्त हो पाएंगे और साम्राज्यवाद का सामना कर पाएंगे।
इस अमृत काल की बेला में भी ऐसे लोगों की आसानी से पहचान की जा सकती है जो सिर्फ गरीबी रेखा के नीचे ही नहीं जी रहे, बल्कि फुटपाथ पर भी गुजर-बसर करने को विवश हैं।
आजादी पर तंज करते हुए जनवादी कवि गोरख पांडेय कहते हैं –
वह कहता है उसको रोटी कपड़ा चाहिए
बस इतना ही नहीं उसे न्याय चाहिए
इस पर से उसको सचमुच आजादी चाहिए,
उसको फांसी दे दो।
वह कहता है कोरा भाषण नहीं चाहिए
झूठे वादे हिंसक शासन नहीं चाहिए
भूखे नंगे लोगों की जलती छाती पर
नकली जनतंत्री सिंहासन नहीं चाहिए
उसको फांसी दे दो।
जब तक समाज की आखिरी पंक्ति में खड़ा आखिरी व्यक्ति खुशहाल नहीं होगा, तब तक यह कविता प्रासंगिक रहेगी और हमारा यह विजय अभियान अधूरा रहेगा।
(लेखक वरिष्ठ कवि व साहित्यकार हैं।)