• डॉ. दयानंद तिवारी
डॉक्टर वेद प्रताप वैदिक ने हिंदी को साहित्य, समाज और हिंदी पट्टी की राजनीति की भाषा से निकालकर राजनय और कूटनीति की भाषा भी बनाई। ‘नई दुनिया’ इंदौर से पत्रकारिता की शुरुआत और फिर दिल्ली में ‘नवभारत टाइम्स’ से लेकर ‘भाषा’ के संपादक तक का बेमिसाल सफर रहा था डॉ. वेद प्रताप वैदिक का। आज वो हमारे बीच नहीं रहे परंतु उनके कार्य, भाव और विचार हमेशा हमें प्रेरित करते रहेंगे, इसमें दो राय नहीं है। डॉ. वेद प्रताप वैदिक की गणना उन राष्ट्रीय अग्रदूतों में होती है, जिन्होंने हिंदी को मौलिक चिंतन की भाषा बनाया और भारतीय भाषाओं को उनका उचित स्थान दिलवाने के लिए सतत संघर्ष और त्याग किया। महर्षि दयानंद, महात्मा गांधी और डॉ. राममनोहर लोहिया की महान परंपरा को आगे बढ़ानेवाले योद्धाओं में वैदिक जी का नाम अग्रणी है। बचपन से ही उनके मन में कई भाषाओं को सीखने की जिज्ञासा थी। उन्होंने कम उम्र में ही रूसी, फारसी, जर्मन और संस्कृत जैसी भाषाओं पर पकड़ बना ली थी।
वेद प्रताप वैदिक ने १९५७ में सिर्फ १३ साल की उम्र में हिंदी भाषा के लिए सत्याग्रह कर दिया और सरकार के विरोध में खूब नारेबाजी की थी, जिसके बाद उन्हें जेल जाना पड़ा था।
वेद प्रताप वैदिक केवल १४ साल की उम्र में पत्रकारिता से जुड़ गए। वेद प्रताप वैदिक प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया के हिंदी समाचार प्रकाशन भाषा के संस्थापक संपादक और जाने-माने स्तंभकार होने के साथ-साथ राजनीतिक विश्लेषक भी थे। उन्होंने कोलंबिया विश्वविद्यालय में दाखिला लिया, जहां उन्होंने अफगान अंतरराष्ट्रीय मामलों का अध्ययन और जांच की। उनके पास मॉस्को के इंस्टीट्यूट ऑफ पीपल ऑफ एशिया और लंदन के स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अप्रâीकन स्टडीज की डिग्री भी थी। उन्होंने जेएनयू में पीएचडी के दौरान इंदिरा गांधी को झुकने के लिए मजबूर कर दिया था। दरअसल, वेद प्रताप वैदिक ने अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर अपना शोधग्रंथ हिंदी में लिखा था, इस वजह से जेएनयू के स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज ने उनकी छात्रवृत्ति रोक दी और कॉलेज से बाहर कर दिया था। जिसके बाद इस मुद्दे पर संसद में जमकर हंगामा हुआ था। फिर आखिर में उस समय की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को झुकने पर मजबूर कर दिया था। फिर इंदिरा गांधी ने जेएनयू के नियमों में बदलाव किया और उन्हें वापस लिया गया। वैदिक २०१४ में २६/११ के आतंकवादी हमले के मास्टरमाइंड हाफिज सईद का साक्षात्कार करने के लिए पाकिस्तान गए थे। उनके इस दौरे ने काफी विवाद खड़ा किया था और यह मुद्दा संसद में भी उठा था। उन पर देशद्रोह का मुकदमा चलाने की बात कही गई थी। डॉ. वैदिक व्यापक रूप से यात्रा करनेवाले पत्रकार थे। उन्होंने विभिन्न मिशनों पर ८० से अधिक देशों का दौरा किया था। डॉ. वैदिक ने शैक्षणिक और पत्रकारिता उत्कृष्टता के लिए एक दर्जन से अधिक राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार जीते थे। वे भारत सरकार की कई सलाहकार समितियों के सदस्य रहे थे।
हाफिज सईद के साक्षात्कार पर जब सांसदों ने उनकी गिरफ्तारी की बात की थी, तब उन्होंने कहा था कि मुझे किसी ने कहा कि दो सांसदों ने मेरी गिरफ्तारी की मांग की है। दो नहीं अगर ५४३ सांसद भी सर्वकुमति से मेरी गिरफ्तारी का प्रस्ताव पारित करें और कहें कि डॉ. वैदिक को गिरफ्तार करो तो मैं पूरी संसद पर थूकता हूं। पत्रकारिता, राजनीतिक चिंतन, अंतरराष्ट्रीय राजनीति, हिंदी के लिए अपूर्व संघर्ष, विश्व यायावरी, प्रभावशाली वक्तृत्व, संगठन-कौशल आदि अनेक क्षेत्रों में एक साथ मूर्धन्यता प्रदर्षित करनेवाले अद्वितीय व्यक्तित्व के धनी डॉ. वेद प्रताप वैदिक का जन्म ३० दिसंबर १९४४ को पौष की पूर्णिमा को इंदौर में हुआ और उनकी मृत्यु १४ मार्च २०२३ को दिल्ली में हुई। वैदिकजी ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के ‘स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज’ से अंतरराष्ट्रीय राजनीति में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। वे भारत के ऐसे पहले विद्वान थे, जिन्होंने अपना अंतरराष्ट्रीय राजनीति का शोध-ग्रंथ हिंदी में लिखा। उनका निष्कासन हुआ। वह राष्ट्रीय मुद्दा बना। १९६५-६७ में संसद में हलचल मच गई। डॉ. राममनोहर लोहिया, मधु लिमये, आचार्य कृपलानी, इंदिरा गांधी, गुरु गोलवलकर, दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी, चंद्रशेखर, हिरेन मुखर्जी, हेम बरूआ, भागवत झा आजाद, प्रकाशवीर शास्त्री, किशन पटनायक, डॉ. जाकिर हुसैन, रामधारी सिंह दिनकर, डॉ. धर्मवीर भारती, डॉ. हरिवंशराय बच्चन, प्रो. सिद्धेश्वर प्रसाद जैसे लोगों ने वैदिकजी का डटकर समर्थन किया।
वैदिकजी ने अपनी पहली जेल-यात्रा सिर्फ १३ वर्ष की आयु में की थी। हिंदी सत्याग्रही के तौर पर वे १९५७ में पटियाला जेल में रहे। बाद में छात्र नेता और भाषाई आंदोलनकारी के तौर पर कई जेल यात्राएं! भारत में चलनेवाले अनेक प्रचंड जन-आंदोलनों के सूत्रधार रहे। उन्होंने अनेक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों का आयोजन भी किया था। राष्ट्रीय राजनीति और भारतीय विदेश नीति के क्षेत्र में सक्रिय भूमिका निभाई थी। कई भारतीय और विदेशी प्रधानमंत्रियों के व्यक्तिगत मित्र और अनौपचारिक सलाहकार थे। लगभग ८० देशों की कूटनीतिक और अकादमिक यात्राएं की थीं। १९९९ में संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का प्रतिनिधित्व किया था। वे विस्कोन्सिन यूनिवर्सिटी द्वारा आयोजित दक्षिण एशियाई विश्व-सम्मेलन के उद्घाटन के साक्षी बने थे। पिछले ६० वर्षों में हजारों लेख और भाषण तो दिए ही थे। वे लगभग १० वर्षों तक पीटीआई भाषा (हिंदी समाचार समिति) के संस्थापक-संपादक और उसके पहले नवभारत टाइम्स के संपादक (विचारक) रहे। मृत्यु के दिन तक राष्ट्रीय समाचार पत्रों तथा प्रदेशों और विदेशों के लगभग २०० समाचार पत्रों में भारतीय राजनीति और अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर डॉ. वैदिक के लेख हर सप्ताह प्रकाशित होते रहे।
छात्र-काल में वक्तृत्व के अनेक अखिल भारतीय पुरस्कार जीतनेवाले वैदिकजी भारतीय और विदेशी विश्वविद्यालयों में विशेष व्याख्यान देते थे। अनेक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व किया था। आकाशवाणी और विभिन्न टीवी चैनलों पर १९६२ से अब तक अगणित कार्यक्रमों में उन्होंने हिस्सा लिया था। वैदिकजी के सम्मान की सूची बहुत लंबी है। विश्व हिंदी सम्मान (२००३), महात्मा गांधी सम्मान (२००८), दिनकर शिखर सम्मान, पुरुषोत्तम टंडन स्वर्ण-पदक, गोविंद वल्लभ पंत पुरस्कार, हिंदी अकादमी सम्मान, लोहिया सम्मान, काबुल विश्वविद्यालय पुरस्कार, मीडिया इंडिया सम्मान, लाला लाजपतराय सम्मान आदि। अनेक न्यासों, संस्थाओं और संगठनों में वे सक्रिय रहे। वे भारतीय भाषा सम्मेलन एवं भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष थे। वैदिकजी आज भले ही हमारे बीच में नहीं हैं लेकिन उनके किए गए प्रयास हम सभी के लिए सदैव प्रेरणादायक रहेंगे। अभी भी ७८ वर्ष की उम्र में वे बहुत सक्रिय थे। वे दक्षिण एशियाई देशों के संगठन के प्रेरक थे। उनके मन में बहुत-सी योजनाएं थीं। वे बहुत कुछ देश और हिंदी के लिए करना चाहते थे। वह अब कौन करेगा? वैदिकजी के निधन से हिंदी पत्रकारिता और साहित्य में एक बड़ा स्थान खाली हो गया है। वे देश-विदेश के घटनाक्रम पर पैनी निगाह रखनेवाले समीक्षक पत्रकार थे। पड़ोसी देशों को लेकर उनकी जानकारी बेजोड़ थी। वे भारत के प्रदूषित राजनीतिक और सामाजिक वातावरण के विरोधी थे। उनका निधन भारतीय पत्रकारिता के लिए अपूरणीय क्षति है। हिंदी भाषा को लेकर जो आंदोलन उन्होंने शुरू किया, उसे कोई नहीं भूल सकता। ऐसे संवेदनशील और प्रखर राष्ट्रवादी हितचिंतक पत्रकार का हमारे बीच न होना बहुत दुखी करने वाला क्षण है। मैं व्यक्तिगत रूप से वैदिकजी से काफी अर्से से जुड़ा रहा हूं। मैं उनकी जीवनी लिखने की प्रक्रिया में हूं। परंतु अब यह समझ में नहीं आ रहा है कि जिस वैदिक पर मुझे लिखना है उनके लिए जो सवाल मेरे मन में है, उसका उत्तर मुझे कौन देगा?
(लेखक श्री जेजेटी विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रोफेसर व सुप्रसिद्ध शिक्षाविद् और साहित्यकार हैं।)