फिल्म ‘गुलमोहर’ से पूरे १३ वर्षों बाद रुपहले पर्दे पर वापसी करनेवाली शर्मिला टैगोर के लिए ‘कमबैक’ शब्द का इस्तेमाल करना गलत होगा, क्योंकि उन्हें इस शब्द से एतराज है। शर्मिला टैगोर कहती हैं कि ‘गुलमोहर’ से मेरी वापसी नहीं हुई है, बल्कि मैं पिछले ६४ वर्षों से फिल्मों में काम करती आई हूं। हां, मनचाही स्क्रिप्ट न मिलने से फिल्मों में अपने आप ब्रेक हुआ है। पेश है, शर्मिला टैगोर से पूजा सामंत की हुई बातचीत के प्रमुख अंश-
१३ वर्षों बाद फिल्म ‘गुलमोहर’ के लिए कैमरा फेस करते हुए कैसा महसूस हुआ?
कलाकार जब भी कैमरे के सामने आता है अपने आपको भूल जाता है। अपने परिवार सहित अपने रंजो-गम और खुशियों सहित सब कुछ भुलाने के लिए अभिनय एक तिलिस्म जैसा है। कैमरे के सामने मैं भी खुद को भूल जाती हूं और उस किरदार की रूह धारण कर लेती हूं।
मनोज बाजपेयी के साथ काम करना कैसा रहा?
असाधारण एक्टर होने के साथ ही मनोज बाजपेयी राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता हैं। मुझे इस बात का मलाल है कि मुझे उनके साथ काम करने का मौका पहले क्यों नहीं मिला? फिल्म में मनोज ने मेरे बेटे की भूमिका निभाई है। एक इमोशनल बॉन्ड हमारे दरमियान बना। लंबे अर्से बाद एक अच्छी फिल्म करने का मुझे सुखद अनुभव हुआ।
आज के परिवेश में एक आदर्श परिवार कैसा होना चाहिए?
आज अधिकांश परिवारों में आपसी तालमेल नहीं है। परिवारों के मर्द दफ्तर से आते ही अखबार, मोबाइल, लैपटॉप जैसी वर्चुअल दुनिया में खो जाते हैं, महिलाएं किचन में व्यस्त होती हैं और बच्चे अपने मोबाइल में। आपसी बातचीत नहीं होती, यह दुखद चित्र है। हमारी सुविधा के लिए मोबाइल बने हैं, हम मोबाइल के लिए नहीं बने। परिवार ऐसा हो जहां हर सदस्य दूसरे सदस्य का हाल जाने, जिंदगी के उतार-चढ़ाव समझे। लेकिन ऐसा हो नहीं रहा। मोबाइल क्रांति परिवारों को डुबो रही है।
आपके परिवार में क्या आपकी बात से सभी सहमत होते हैं?
मेरी बात से कई बार बेटी सोहा सहमत नहीं होती। एक परिवार में भिन्न विचार और अलग सोच हो सकती है। लेकिन सोच अलग है इसलिए आप एक-दूसरे से बात नहीं करें तो यह गलत बात होगी। मेरे परिवार में मेरे पोते-पोतियों में सारा और इब्राहिम बड़े हैं। तैमूर, इनाया और जेह अभी बहुत छोटे हैं। इन सबकी सोच अलग है। लेकिन मैं सभी से प्यार करती हूं। सभी मेरे अपने हैं और मेरे परिवार का अटूट हिस्सा हैं। परिवार को जोड़े रखने के लिए आपसी संवाद, प्यार और अपनापन निहायत जरूरी है।
दो फिल्मों के लिए आपको भी राष्ट्रीय पुरस्कार मिले थे। आपके मन में किस तरह की यादें बसी हुई हैं?
मुझे फिल्म ‘मौसम’ और ‘अबार अरण्या’ (बंगाली) के लिए दो बार नेशनल अवॉर्ड मिला। फिल्म ‘मौसम’ को गुलजार साहब ने निर्देशित किया था और ‘अबार अरण्या’ के निर्देशक थे गौतम घोष। फिल्म ‘मौसम’ की शूटिंग के समय मैं हर छोटी-मोटी बात गुलजार साहब से पूछा करती थी। हालांकि, उन्होंने हर बात मुझे समझाई थी लेकिन मैं कोई गलती नहीं करना चाहती थी। मेरा डबल रोल था कजरी और चंदा का। एक उसमें सेक्स वर्कर थी। आज बड़ा ताज्जुब होता है कि कैसे यह डबल रोल, कॉम्प्लेक्स किरदार मैं कर पाई।
फिल्म इंडस्ट्री के कौन से बदलाव आपको पसंद आ रहे हैं?
मुझे फिल्मों और ओटीटी का यह दौर सबसे अधिक अच्छा लग रहा है। मेरे दौर में भी ‘आराधना’, ‘मौसम’, ‘आंधी’ जैसी हीरोइन प्रधान फिल्में बनती थीं, लेकिन बहुत सारी नहीं बनती थीं। ऐसी दर्जनों फिल्में हैं, जहां हीरोइन को ग्लैमर डॉल के रूप में पेश किया गया है। अब वह दौर नहीं है, जिसकी मुझे बेहद खुशी है। इस समय अभिनेत्रियों को अपनी प्रतिभा दिखाने का पूरा मौका है। यह बदलाव मुझे प्रभावित करता है।
मां बनने के बाद भी आपने फिल्मों में काम किया, यह सब कैसे संभव हुआ?
मेरे लिए सबसे बड़ा प्लस पॉइंट था मेरे पति नवाब मंसूर अली खान का साथ। उन्होंने कहा, अगर तुम फिल्मों में काम हमेशा करना चाहती हो तो जरूर करो मुझे कोई आपत्ति नहीं है। मेरे तीनों बच्चे अपने करियर और जिंदगी में खुश हैं। एक स्त्री घर से बाहर निकलकर अपना करियर तभी बना सकती है जब परिवार का साथ उसे मिले। पति टाइगर ने मुझे और मैंने उन्हें स्पेस के साथ ही फ्रीडम दिया, जो हमारे रिश्ते की खूबी थी।
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिन के लिए आप क्या कहना चाहेंगी?
जब एक स्त्री बिना किसी स्ट्रैस के जिंदगी जी सके वही है उसके लिए महिला दिन। बच्ची जब छोटी होती है उसकी देखभाल, सुरक्षा, उसके निर्णय, उसके माता-पिता व बड़े भाई करते हैं और शादी के बाद उसके जीवन के निर्णय पति और ससुरालवाले लेते हैं। स्त्री जब वृद्ध होती है उसके जीवन की बागडोर बच्चों के हाथ चली जाती है। एक स्त्री खुशहाल हो, तन और मन से यही उम्मीद है महिला दिन की।
सड़क सुरक्षा पर आपकी क्या सोच है?
एक्सीडेंट न सिर्फ सड़कों पर, बल्कि रेलवे, हवाई जहाज सहित सभी स्थानों पर होते हैं। सड़क हादसे में किसी एक की गलती दूसरे पर भारी पड़ जाती है। लोगों में जागरूकता फैलाना बहुत जरूरी है। विदेशों में ६ और ८ लेन वाले रोड होते हैं, कुछ ऐसा इंतजाम होना चाहिए। कानून का बहुत सख्ती से पालन हो।