विवेक अग्रवाल
हिंदुस्थान की आर्थिक राजधानी, सपनों की नगरी और ग्लैमर की दुनिया यानी मुंबई। इन सबके इतर मुंबई का एक स्याह रूप और भी है, अपराध जगत का। इस जरायम दुनिया की दिलचस्प और रोंगटे खड़े कर देनेवाली जानकारियों को अपने अंदाज में पेश किया है जानेमाने क्राइम रिपोर्टर विवेक अग्रवाल ने। पढ़िए, मुंबई अंडरवर्ल्ड के किस्से हर रोज।
वापी को तस्करी गतिविधियों के लिए एक नाम मिला था…
इस जगह को ‘तस्करी का द्वार’ कहते थे…
…वापी से ही दमन-दीव जाने का रास्ता भी है…
इस इलाके में लल्लू जोगी समेत ३ बड़े लैंडिंग एजेंट थे…
…ये सभी हाजी मस्तान, करीम लाला, यूसुफ लाला, वरदाराजन से दाऊद तक सबके लिए लैंडिंग करवाते थे।
बड़ा दमन और छोटा दमन इलाकों में मच्छी मारने का कामकाज था, या तस्करी का। दमन में घर ऐसे बनाए जाते थे कि छोटी नावें सीधे घर के अंदर तक आ जाएं। अमूमन नावें घरों के पिछवाड़े में फर्श के नीचे तक आ पहुंचती थीं। ऐसा ही लल्लू जोगी ने अपने बंगले में किया था। उनसे क्या माल उतर रहा है, कोई देख नहीं पाता था। इन नावों में तस्करी का माल भरा होता था, क्योंकि बड़े जहाज और वाहन किनारे नहीं आ पाते थे। वहां से छोटी नावें माल उतार कर किनारे लातीं। वहां से माल वापी के जरिए देश भर में जाता था।
तस्करी से घड़ी, सोना, कपड़ा, इलेक्ट्रॉनिक्स, चांदी आते थे। वैâरियर बैग में माल भर कर ट्रक, बस, ट्रेन से जाते थे। सोना-चांदी विशेष खांचों वाली जीपों व कारों में भर कर भेजा जाता था।
उस दौर की तस्करी के जानकार बताते हैं कि सोना-चांदी ढोने वाली खांचा जीप-कार मुंबई व अमदाबाद के कुछ खास गैरेज में बनती थीं। कुछ गैरेज ऐसे थे, जो पुरानी जीप-कारें खरीद कर खास खांचे तैयार कर तस्करों और लैंडिंग एजेंटों को बेच कर मोटा मुनाफा कमाते थे। उनके रजिस्ट्रेशन नंबर प्लेट हमेशा बदलते रहते थे ताकि पुलिस या कस्टम्स के मुखबिर भी उन वाहनों के बारे में पक्की सूचना न दे सकें। इन वाहनों का पंजीकरण भी किसी फर्जी नाम पर होता, या करते ही नहीं थे। कार या जीप पकड़ी जाए तो भी मामला इसी कारण कमजोर हो जाता।
१९६३ में गोल्ड कंट्रोल एक्ट आया, जिससे सोना तस्करी खासी बढ़ी। ६० व ७० के दशकों में वापी में तस्करी का धंधा चरम पर था। ऐसा नहीं था कि उसके बाद भी ये काम बंद हो गया। बस इतना हुआ कि ये काम थोड़ा कम हो गया। वापी से आज भी तस्करी जारी है। फर्क इतना है कि अब सोना, हथियार, नशा, लाल चंदन, वियाग्रा, मंहगी दवा की तस्करी होती है।
ये कोई अच्छी बात तो नहीं, लेकिन इस सुंदर शहर के साथ तस्करों और तस्करी का बिल्ला जैसे सदा के लिए चिपक गया है, वैसे ही ‘तस्करी के द्वार’ की संज्ञा आज भी बरकरार है।
कच्छ इलाके में रहने वाले उस पुराने तस्कर ने ऐसी ही दर्जनों बातें बताते हुए भुज एक्सप्रेस के वातानुकूलित पहले दर्जे की बर्थ पर पांव पैâलाते हुए प्लास्टिक के गिलास से शराब का एक बड़ा सा घूंट भरा, चखने का दाना उठा कर मुंह में डालते हुए बड़े गर्व से कहा:
– अगर वापी नहीं होता, तस्करी में मुंबई भी नहीं होता।
(उक्त किस्सा लेखक की प्रसिद्ध किताब ‘बुलेट्स’ से लिया गया है। लेखक ३ दशकों से अधिक अपराध, रक्षा, कानून व खोजी पत्रकारिता में हैं, और अभी फिल्म्स, टीवी शो, डॉक्यूमेंट्री और वेब सीरीज के लिए रचनात्मक लेखन कर रहे हैं। इन्हें महाराष्ट्र हिंदी साहित्य अकादमी के जैनेंद्र कुमार पुरस्कार’ से भी नवाजा गया है।)