डॉ. ममता शशि झा
मुंबई
रमण जी, रीमा के कहलखिन ‘काल्हि बटुक काका आबि रहल छथिन, दु दिन रहता।’
रीमा सप्रश्न, ‘फेरो!!!! की बात?’
रीमा अपन पछिला अनुभव के कारण बजली, ‘अहिं जा क भेट के अबितियनि, मुश्किल स दु दिन के छुट्टी भेटल अछि।’
‘हमरा इ कह के मौके नहि भेटल, ओ पूछलथि जे, शनि-रबि त तोरा सब के छुट्टी होइ छ, हम कहलियनि हां होइया, ओ चट्ट दे कहि देलइथ जे हम मुंबई आयल छी तोरा काकी के ले के, कनिया स भेंट कराब लेल लेने अबई छियन, आब अहीं कहू जे कि कहितियनि? रमण जी के बाज काल कंठ सूखा गेल छलनि, अपना के ‘दो पाटन के बीच’ बला स्तिथि में देखि के।
रमण जी के पछिला बेर के दृश्य सब मोन पड़ी गेल छलनि ओ रीमा के कहने छलखिन जे बटुक काका खाय-पिब के बड़ शौकिन छथिन, ताहि पर रीना बाजि उठल छलि ‘हा पुरुष के नीक निकुत चाही त शौकिन आ स्त्रीगण जँ खेलक त जिबलाहि!! रमण जी ताहि पर रीमा के मुस्कियाइत कहने छलखिन जे येखन स्त्री-पुरुष के समानता के लेल लड़ के बदला जा के बटुक काका के लेल भानस के तैयारी करू ग!! इस सुनि क हुनकर पत्नी रीमा मुस्कीयएत बटुक काका के लेल नाना प्रकार के भोजन बनाब के तैयारी में लागी गेल छलि। हुनका अबिते ठंडा देलखिन, बटुक काका कहलखिन ‘हो हमरा इ करिका, उजरा आ संतोला रंग बला किछु नहि दिह पीब लेल, नाक-कान झनझना जाइया, नेबो द क शरबत लाब’, हांए-हांए रीना शरबत बनौलनि, बटुक काका येक्कहि घोंट में पीबी के गिलास आगू बढ़बइत बाजल छला, ‘इ त निछ्च्छ पानि सन के छ कनि मीठगर एक लोटा बना क आन!!’
रीमा नया क्रोकरी के सेट में नीक जांका भोजन परसी के देलखिन त काका कहलखिन ‘घर में भोजन के सामग्री कम छ जे इ चुनौटि में क अनलहे!’
‘कोनो सामग्री के कमी नहीं अछी, अहाँ के पुतोहु नीक जांका सजा के देलइथ थारी’, रमण जी अपन हँसी रोकइत बाजल छला।
बटुक काका ‘थारी कोनो बियाहक टेंट छइ जे सजाब के काज छइ। हम भोजन कर बैसल छी, कोनो भोग थोड़े लगाब के छइ’ इ बात सुनि क रीमा आमिल पीबी के रहि गेल छलि। रसगुल्ला आ दही परस काल में रमण जी सबटा बाटी, चम्मच के बिसरि, बाकुट ले क रसगुल्ला, छह ल क दही आ लप्प सँ चिन्नी परसलइथ, तहन बटुक काका के चेहरा पर मुस्की छूटल छलनि!!