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मैथिली व्यंग्य : भक्ति की ब्यवसाय!

डॉ. ममता शशि झा मुंबई

सुनीला जहन सुनलखिन जे बेटा अभय के आब बैंक बला सब मुंबई पठा रहल छइ काज कर लेल त बड़ खुश भेली। मुंबई के नाम सुनीते हुनका मोन पडि गेलनि दुर्गा पूजा आ गरबा। बरसों बाद मुंबई जाय के इच्छा पूरा भ जेतनी, मोने-मोन सोचली, विवाह स पहिने ओतहि रहइ छलि, मुदा मील बंद भ गेला के कारने बाबूजी घर-द्वार बेच क गामे आबि गेल छलखिन, आ हिनकर विवाह गामें में भ गेल छलनि। व्यंग के भाव स सोचलनि जे सही छइ परेशानी में त अपने गाम आ अपने लोक काज अबइ छइ। खैर, अपन बेटा के कहलखिन जे अहि बेर हम दुर्गा पूजा में मुंबई आयब।
अभय, ‘ठीक छइ।’
मुंबई पहुंच क देखलखिन जे पूरा परिवर्तन भ गेल छइ, नीक लगलनि।
अभय, ‘कहु क्या दिन जेबइ गरबा देख लेल के सब जायत संगे अपन पहिलुका संगी सब के फोन के क पुछि‌ लियउ।’
सुनिला, ‘कोनो खेला आ सिनेमा देख जेबइ जे पास के काज हेतइ, आ संगी के कोन काज, हम कनी काल ओहि में खेल लेब, सब खेलाइत हेतइ ताहि में जा क।
बेटा के कहलखिन जे कोना सब संगी सब हेंज बान्ही क एकटा गार्जियन के संगे ल क भरि राति घुमि-घुमि के गरबा खेल लेल जाय छलि, क्यो ककरो संगे गरबा खेल लइ छलइ।
अभय, ‘माँ आब ऐना किछु नहि होइ छइ, सब अपन-अपन झुंड बनाकर क जाय छइ, पाई द क एंट्री पास लइ छइ, बड़का मैदान में स्टेज बनल रहइ छइ, ओहि में गीत गाब बला सब गीत गबइत छइ आ सब कूदी-कूदी क नचइत रहइ छइ, आबक गरबा, डांडिया ऐना होइ छइ।
सुनीला, ‘स्टेज बनल रहइ छइ त गरबी कत राखल जाय छइ?’
अभय, ‘गरबी!’
सुनीता, ‘हा जेना अपना ओत अहिबातलक पाती होइ छइ, तहिना एकटा सजल मटकी में दीप जरा क माता के फोटो राखि क ओहि के चारु कात लोग झुकी-झुकी के गोल-गोल घुमि क हुनकर गीत गबइत, अपन भक्ति देखाब लेल थपड़ी पिटइत गरबा खेलाइ छलइ।
अभय, ‘माँ आब अहाँ के क्यो अपना संगे घुसिया क खेल नहि देत, जत जेबइ गरबा में ओत पहिने स जा क जगह छेक क राख पड़त, धक्कम-धुक्की में के खसलइ-पड़लइ से बात के क्यो नबतुरीया सब नहि देखत, बस के कतेक कुदि-कुदि के खेल सकइया ओहि बात पर ओकर सब के ध्यान रहइ छइ, कियेक त एक महीना पहिने स ओ सब अहि तरह के गरबा कर लेल पाई दे के सीखने रहइ छइ।’
सुनीला, ‘भक्ति भाव लेल ट्रेनिंग!!’
अभय, ‘माँ आब कोनो भक्तिभाव नहि सब व्यवसाय छइ!!’

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