मुख्यपृष्ठस्तंभमैथिली व्यंग्य : बंटवारा

मैथिली व्यंग्य : बंटवारा

डॉ. ममता शशि झा मुंबई
‘हे भगवान फेर पितर पक्ष आबि गेलइ, इहो पख लगइ छइ अगुतायले रहइ छइ जल्दी-जल्दी आब लेल जेना हमर सब के सासू अगुतायल रहइ छलि सब काज कराब लेल।’ छोटकी द्यादानी, बड़की आ मझिली दिस देख क ठिठियाइत बजली। मझिलि के हँसी लागि गेलनि।
छोटकी मूंह बनबइत, ‘और अहि बेर त हमरे ओत के पारी छइ।’
मझिली, ‘अहिं के नियम बनेल छले, जे जिम्मेदारी आ संपत्ति में एक रंग बखरा होयत।’
जेठकी मुस्कियाईत, ‘हे ऊपर स सब देखइत हेती, जे जीबइत में त बँटायल छलहुंये, मरला बादो बटायले छी, एकरा दुआरि स ओकरा दुआरि पर।’
छोटकी, ‘पता नहिं इ ककरा फुरेल हेतइ खुराफात, जे हर साल इ पितर पक्ष में हुनका लेल ब्राह्मण भोजन कराऊ।’ बरखी में त लोक याद कये लइ छनि।
मझिली, ‘सही में!’
बड़की, ‘हे ज सत्ते सुनइत हेति त बुझबइ।’
मझिली, ‘सोचियउ अगर कोनो ये एहन मशीन बनि गेलई जाहि में सँ सत्ते में पितर अगर पितर पक्ष में अपना-अपना घर में आबि जेथिन तो की हेतइ?’
छोटकी, ‘नो वे, माय गोड!! हर साल पंद्रह दिन झेलनाइ, छूटकारा भ गेला के बाद ककरो नहिं नीक लगतइ।’
बड़की, ‘अगर अहाँ के माय-बाप ऐता ते?’
छोटकी, ‘तहन त हम बड़ खुश भ जायब।’
मझिली, ‘त मशीन के इ बुझा देल जाय जँ पितर नीच्चा आब चाहइ छथि त अपन-अपन बेटी लग जाइथ।’
बड़की, ‘बड़ बढ़िया संपत्ति लेब लेल अपने सब छलियइ आ एथिन बेटी लग!!’
मझिली, ‘भरि जिनगी त अपने सब रहथिन, आब मरला पर त छूटे जान।’
छोटकी हाँ में हाँ मिलेलइथ, ‘एकदम सही।’
बड़की, ‘हाँ अपना सब लग चारि-चारि महीना के लेल बारी-बारी स बँटि के, ओहो हुनकर बेटी लग बेटा सब नहिं जाय दइ छलखिन, कह लेल जे लोक कि कहत, मुदा गप्प त असली इ छलइ जे तीनू भाई के डर होइ छलनि जे बेटी के किछु द नहिं देथिन।’
छोटकी आ मझिली अवाक भ क जेठकी द्यादनी दिस देखि क मूंह चमकबइत एक दोसर दिस देखि क हँसी देलथि।
छोटकी, ‘इ सबटा व्यवस्था अहिं सब के बनायल छले।’
मझिली, ‘आई कि बात छइ अहाँ के बड़ सासू-ससुर के पक्ष लेब के मोन भ रहल अछि??’
बड़की, ‘कियेक त हमरो तीन टा बेटा अछि, अहाँ के भैंसुर जा धरि छला, कोनो दिक्कत नहिं भेल मुदा आब हमहुँ चारि-चारि महीना में बटाँ गेलउहें!!’

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