मुख्यपृष्ठस्तंभअर्थार्थ : दहेज प्रथा अभी भी चुनौती

अर्थार्थ : दहेज प्रथा अभी भी चुनौती

पी. जायसवाल मुंबई

आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस की बात करने और दुनिया में तीसरे अर्थव्यवस्था की राह पर चलने वाले देश में हाल ही में एक वाकये ने मुझे काफी निराश किया। इस वाकये के दौरान यह देखकर मुझे गहरी निराशा हुई कि गुलामी से मुक्ति और विकसित भारत का दावा भरने के बावजूद हमारे समाज ने दहेज को लेकर उतनी उन्नति नहीं की है। इस वाकये के दौरान मैं एक टीचर की लड़की से मिला और यह सुनकर हैरान था कि उसके शादी को २८ साल होने को आए, लेकिन उसके ससुराल में उसके सास-ससुर, देवर-देवरानी द्वारा अभी भी शादी में मिले उपहारों को लेकर उसे हेय दृष्टि से देखते हैं। उसे अक्सर अपने और अपने पिता और परिवार के बारे में अपमानजनक शब्द और ताने सुनने पड़ते हैं। पति तो उसके साथ है लेकिन आज भी उसके बाकी के ससुराल वाले उसे दरिद्र की बेटी कहते हैं, क्योंकि उस बहू ने बाकी बहुओं के मुकाबले कम सामान लाई थी। यह बहुत ही दर्दनाक और शर्मनाक हालात हैं। अगर इस तरह के समाज के कीड़े शिक्षा में इतनी प्रगति के बावजूद भी मौजूद हैं तो इन कीड़ों पर सिर्फ थू-थू कर मुक्ति नहीं पाई जा सकती, इसके लिए लंबे सामाजिक प्रयास और कानूनी प्रयास एक साथ करने पड़ेंगे। बकौल, महिला तानों का स्तर इतना गिरा रहता है, जिसका उल्लेख यहां करना उचित नहीं है।
यह बातें इसलिए यहां लिख रहा हूं, ताकि इस पर आर्थिक और सामाजिक समाजशास्त्रीय विश्लेषण हो सके। मेरा मानना है कि सबसे पहले तो ऐसी महिलाओं को आगे आकर बोलने के लिए साहस करना पड़ेगा। पुलिस के पास बेखौफ जाएं। इसके लिए उन्हें साहसी बनाना पड़ेगा, सरकार को ओपन अप या स्पीक अप का अभियान चलाना पड़ेगा। यह आर्थिक और सामाजिक समस्या का समाधान एक लंबा सामाजिक और कानूनी अभियान मांगता है, लेकिन तत्काल में महिलाओं को इसके लिए खुलकर आगे आने के लिए प्रेरित करना पड़ेगा। संचार के इस आधुनिक युग में ऐसे कई माध्यम हैं, जहां वो अपनी बातों को रिकॉर्ड कर सकती हैं, बता सकती हैं, शिकायत कर सकती हैं और पुलिस के पास जा सकती हैं। ऐसी महिलाओं को तो सबसे पहले अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों का दस्तावेजीकरण करना चाहिए। यह जागरूकता लाना पड़ेगा, जो आगे चलकर उनके सुरक्षा सहित कानूनी उपाय के लिए भी काम आ सकता है। ओपन अप या स्पीक अप अभियान के साथ दस्तावेजीकरण के लिए राइट अप अभियान को भी सरकार को बढ़ावा देना पड़ेगा।
सरकार और स्थानीय प्रशासन को इसमें बड़ी पहल करनी पड़ेगी, क्योंकि इसकी जड़ें बहुत गहरी हैं और यह जल्दी से पटल पर नहीं आती हैं। समाज में दहेज प्रथा सदियों पुरानी और गहरी जड़ें जमाए हुए प्रथा है, जो आज कालक्रम में बदरंग होकर दाग बन गया है। इसकी गहरी ऐतिहासिक जड़ें और महत्वपूर्ण कानूनी निहितार्थ हैं। यह प्रणाली सदियों में विकसित हुई और गहन कानूनी आयामों के साथ जटिल सांस्कृतिक पेचीदगियों को भी प्रदर्शित करती है। इस परंपरा की उत्पत्ति ऐतिहासिक सामाजिक-आर्थिक संरचनाओं में देखी जा सकती है, जहां शुरू में दहेज का उद्देश्य दुल्हन के लिए उसके नए वैवाहिक घर में वित्तीय सुरक्षा के रूप में काम करना था। कुछ लोगों का मानना है कि यह कन्या द्वारा उसके पिता की संपत्ति में उसके हक को व्यक्त करने का एक अभिव्यक्त मॉडल था, जिसमें कन्या का हक जो अचल संपत्ति में निहित है, उसके द्वारा ले जाया नहीं जा सकता था तो कन्या के पिता ने उस हिस्से और हक की जगह कुछ चल संपत्तियां दे दिया करता था। पहले दहेज का प्रचलन `स्त्री के उसके खुद के धन स्त्रीधन’ के रूप में था, जिसमें माता-पिता और रिश्तेदारों से मिले उपहार महिला की संपत्ति होते थे, जिसका उपयोग उसकी भलाई के लिए किया जा सकता था। ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान ऐतिहासिक बदलाव हुए, जब भूमि का निजीकरण शुरू किया गया। इस बदलाव ने महिलाओं के संपत्ति अधिकारों को सीमित कर दिया, जिसके कारण दहेज की अवधारणा दुल्हनों के लिए अपने वैवाहिक घर में अपने हिस्से के बदले धन लाने की अपेक्षा बन गई। हालांकि, इस विचार में यह कन्या और उसके पिता संपत्ति वितरण का न्यायपूर्ण वितरण का विचार निहित था, न कि सामाजिक प्रतिष्ठा या ससुराल वालों का या वर के हक का। समय के साथ यह प्रथा एक जटिल और समस्याग्रस्त रिवाज में बदल गई है, जिससे कन्या पक्ष के ऊपर वित्तीय बोझ, जबरदस्ती और यहां तक कि लिंग आधारित हिंसा के मामले भी सामने आने लगे।
भारत में इससे निपटने के लिए विभिन्न कानूनी उपाय पेश किए गए। १९६१ का दहेज निषेध अधिनियम इनमें से एक महत्वपूर्ण कदम था, जिसने दहेज देना और लेना दोनों को दंडनीय अपराध बना दिया। हालांकि, इस तरह के कानूनी हस्तक्षेप के बावजूद दहेज प्रथा समाज के कुछ हिस्सों में बनी हुई है। यह प्रथा व्यापक सामाजिक गतिशीलता को प्रभावित करता है और महिला और उसके मायके के परिवार के आत्मसम्मान को चूर-चूर करता है। यह इस धारणा को बल देता है कि एक महिला का मूल्य उसकी क्षमताओं, चरित्र या उपलब्धियों के बजाय उसके भौतिक योगदान से निर्धारित होता है। न्यायपूर्ण उद्देश्य से शुरू की गई यह प्रथा आज महिला के अस्तिव को नकारने के रूप में उभरकर सामने आ रहा है।
समय के साथ दहेज प्रथा के कई तरह के नकारात्मक परिणाम सामने आए हैं, जिसमें हत्या, मानसिक शोषण और यहां तक कि आत्महत्या जैसे अपराध भी शामिल हैं। दहेज प्रथा के ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और कानूनी आयाम हैं, जो सदियों से विकसित हुए हैं। जो मूल रूप से `स्त्रीधन’ जैसी प्रथाओं से उपजा था, लेकिन यह दुल्हन के परिवार से पर्याप्त धन हस्तांतरण की अपेक्षा में बदल गया। दहेज निषेध अधिनियम जैसे कानूनी उपायों का उद्देश्य इसके नकारात्मक परिणामों को रोकना है, लेकिन इसके प्रभाव को पूरी तरह से खत्म करने में चुनौतियां अभी भी बनी हुई हैं। इसे समूल नाश करना है तो सरकार कानून शासन-प्रशासन के साथ समाज को भी आगे आना पड़ेगा।
(लेखक अर्थशास्त्र के वरिष्ठ लेखक एवं आर्थिक, सामाजिक तथा राजनैतिक
विषयों के विश्लेषक हैं।)

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