पी. जायसवाल मुंबई
केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने पिछले दिनों एक चैनल के कार्यक्रम में कहा कि भारतीय जनता पार्टी ने उन्हें २०२४ का लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए टिकट की पेशकश की थी। हालांकि, उन्होंने चुनाव लड़ने के लिए आवश्यक धन की कमी का हवाला देते हुए प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। उन्होंने यह भी बताया कि भाजपा ने उन्हें आंध्र प्रदेश या तमिलनाडु से चुनाव लड़ने का विकल्प भी दिया था। बकौल, वित्त मंत्री एक सप्ताह या दस दिनों तक सोचने के बाद उन्होंने नहीं कहने का निर्णय लिया। कारण बताया कि उनके पास चुनाव लड़ने के लिए उतने पैसे नहीं हैं। आंध्र प्रदेश से लड़ें या तमिलनाडु से यह भी उनके लिए एक मुद्दा था। उन्होंने यह भी सोचा क्या वह जीतने योग्य मानदंडों के हिसाब से योग्य हैं? क्या आप इस समुदाय से हैं या आप उस धर्म से हैं? क्या आप यहीं से हैं? यह सब सोचने के बाद उन्होंने कहा नहीं, मुझे नहीं लगता कि मैं यह कर पाऊंगी।
एक टीवी चैनल के कार्यक्रम में देश की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण की यह ईमानदार स्वीकारोक्ति बहुत ही महत्वपूर्ण है, जिसमें वे कहती हैं कि आज का चुनाव बहुत खर्चीला हो चुका है और मेरे पास इतना पैसा नहीं है कि मैं चुनाव लड़ सकूं। अगर इस दौर में देश की वित्त मंत्री होने के बाद भी अगर उन्होंने इतना साहसपूर्ण वक्तव्य दिया है, वह काबिलेतारीफ है। वैसे जितने भी वाक्य उन्होंने बोले हैं वे संपूर्ण चुनावी व्यवस्था का एक ऐसा पहलू है, जो निर्मला सीतारमण जैसे योग्य उम्मीदवारों को लोकसभा में चुनाव में जाने से रोकता है। जरा सोचिए, यह कितना बड़ा प्रश्न उन्होंने चुनावी व्यवस्था के बारे में उठाया है, जिसे चुनाव आयोग को संज्ञान लेना चाहिए। वह भी तब जब ऐसी टिप्पणी देश के वित्त मंत्री की हो और उस वित्त मंत्री की जिसकी लाखों में सैलरी होगी, भत्ते होंगे, परिवहन आवास की बिना लागत की सुविधा के साथ जीवन जीने की अन्य सहूलियतें मिली हों। उसके बाद भी यदि उनके पास पैसा चुनाव लड़ने लायक न बनाता हो तो सोचिए देश का कितना बड़ा वर्ग सिर्फ खर्चीले चुनाव के कारण चुनाव में नहीं उतर पा रहा है। बहुत से ऐसे युवा या व्यक्ति हैं, जिन्हें लोकसभा में होना चाहिए लेकिन पूंजी ने इस तरह से चुनाव को कब्जे में लिया है कि एक आम आदमी तो सोच ही नहीं सकता कि वह लोकसभा सदस्य के रूप में क्षेत्र का संसद में प्रतिनिधित्व करे।
वित्त मंत्री ने सिर्फ यह एक बयान नहीं दिया है, बल्कि भारत के लोकतंत्र में समय की यात्रा के साथ उभर आए एक ऐसे पहलू की तरफ इशारा किया है जिस पर मंथन होना ही चाहिए। चुनाव में सभी प्रत्याशियों को लड़ने के लिए समान समतल जमीन मिलना चाहिए। कोई व्यक्ति सिर्फ इसलिए नहीं चुनाव जीतना चाहिए या लड़ना चाहिए कि वह धनबल या बाहुबल में आगे है। चुनाव लड़ने की पूरी प्रक्रिया पूंजीवाद के प्रभाव से मुक्त होनी चाहिए, अन्यथा योग्य युवा योग्य होते हुए भी पूंजी के कारण आगे नहीं आ पाएंगे।
ऐसा नहीं है कि इसका हल नहीं है, इस उभर आई बुराई का सबसे बढ़िया हल यही है कि चुनाव का खर्च चुनाव आयोग वहन करे और एक समान राशि लड़ने वाले उम्मीदवारों से ले ले जो ज्यादा भी न होकर ऐसा हो कि सबके या समाज के सहयोग से देने योग्य हो। चुनाव खर्च के नाम पर कुछ प्रमुख चौराहों, कार्यालयों और बाजारों पर उम्मीदवारों का बायोडाटा प्रदर्शित हो। उम्मीदवारों की संपूर्ण डिजिटल जानकारी चुनाव आयोग के मोबाइल ऐप पर उपलब्ध हो। उम्मीदवारों की निश्चित समय सीमा की भाषण प्रतियोगिता हो, जिसमें वह अपना विजन और बात प्रस्तुत करें और कुल मिलाकर यह एक भव्य इवेंट न होकर एक आम जरूरी प्रक्रिया हो, जिसे लोगों को करना हो।
ऐसा नहीं है कि यह जो मॉडल मैं बता रहा हूं वह एक यूटोपिया विचार है जो लगभग इससे मिलता-जुलता एक प्रयोग मिजो पीपल फोरम द्वारा मिजोरम के चुनाव में किया जा रहा है और वह सफल है। मिजोरम में इस फोरम ने चुनाव को लेकर पारदर्शी ईमानदार और स्वीकार्य व्यवस्था बना दी है, जिसका पालन राजनीतिक दल और प्रत्याशी दोनों करते हैं। कोई इस लक्ष्मण रेखा को लांघने का प्रयास नहीं करता है, जिसका मतलब है कि यह सुधार समाज की तरफ से ही आया है। यहां सब चुनाव आयोग के नियम तो हैं ही लेकिन प्रâी, फेयर एवं सभी के समतल जमीन जैसे मौके के लक्ष्य की पूर्ति हेतु ‘मिजो पीपल फोरम’ के बनाए नियमों का पालन करते हैं। यहां न तो पोस्टरबाजी होती है, न ही पैसे खर्च करने पड़ते हैं और लाउडस्पीकर का प्रयोग तो बिल्कुल नहीं होता। प्रत्याशियों को जनता के सामने अपनी बात रखनी होती है और इसके लिए उन्हें बीस मिनट का वक्त दिया जाता है, जिसमें वोटर भी उनसे सवाल-जवाब करते हैं। यहां कोई बड़ी रैली नहीं होती और यदि कोई प्रत्याशी उनके बनाए नियमों का उल्लंघन करता है तो उसे मतदाताओं का गुस्सा भी झेलना पड़ता है। यहां यह सुधार वर्ष २००६ से है और सफल है। २००६ के बाद से यहां कोई बड़ी-बड़ी रैली नहीं हुई। ठीक इसी तरह पूर्वोत्तर का एक और राज्य है, जिसने भी एक आदर्श चुनावी संभावना का मॉडल पेश किया है वह है अरुणाचल प्रदेश का चुनाव। यह प्रदेश सर्वसम्मति के मॉडल को फॉलो करता है, जो दशकों पहले भारत में पंचायत के स्तर पर लागू था। इससे समाज में कटुता में काफी कमी आई है। इस समय अरुणाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं और वहां कुछ सीटों पर सर्वसम्मत निर्वाचन हो चुके हैं।
मिजोरम और अरुणाचल प्रदेश के इस पहल को एक सफल केस स्टडी के रूप में लेते हुए भारत के अन्य हिस्से में लागू कर चुनाव सुधार का निरंतर प्रयास करना चाहिए, नहीं तो हमारे जैसे लाखों युवा जो आगे आकर देश और समाज के लिए कुछ करना चाहते हैं यह पूंजी नामक स्थायी बैरियर हमेशा उन्हें रोकता रहेगा।
(लेखक अर्थशास्त्र के वरिष्ठ लेखक एवं आर्थिक, सामाजिक तथा राजनैतिक विषयों के विश्लेषक हैं।)