पी. जायसवाल मुंबई
भूमंडलीकरण और शहरीकरण के इस दौर में ब्रांड के पीछे नवधनाढ्यों की चाहत बढ़ी है। ब्रांड के इस अंधानुकरण में उन्हें मालूम ही नहीं है कि वह अनजाने में भारत का पैसा और लाभ विदेशों में भेजने का माध्यम बन रहे हैं। गौरतलब है ब्रांड मार्वेâट में लगभग विदेशी ब्रांड की हिस्सेदारी ज्यादा है। आज ब्रांड की मोहमाया ऐसी है कि लोग खुशी- खुशी ब्रांडेड रेस्टोरेंट में एक चाय के लिए १०० से ३००-४०० रुपए भी दे देंगे, लेकिन उतनी ही या उससे बेहतर सुविधा के साथ कोई कसबे का या कोई अन्य व्यापारी उससे बेहतर चाय देगा तो लोग उसे ५० रुपया भी देना पसंद नहीं करेंगे। चाय बनाने में कोई रॉकेट साइंस नहीं है, पानी, दूध, चाय पत्ती, अदरक आदि ही सब डालते हैं और वह भी देश में बने हुए आइटम से ऐसा भी नहीं कि विदेश से कोई आइटम बनता हो, लेकिन समान सुविधा या बेहतर सुविधा के साथ अगर कोई ब्रांडेड रेस्टोरेंट के बराबर या उससे कम भी चार्ज करता है तो भी लोग उसकी आलोचना करने लगते हैं। यह और कुछ नहीं ब्रांड को लेकर एक आग्रह और उसकी मोह माया है, जिसके गिरफ्त में लोग हैं। अभी कुछ दिन पहले अयोध्या के शबरी रेस्टॉरेंट का मसला सोशल मीडिया पर वायरल हो गया। इस खबर के पीछे दो पहलू हैं। पहला यह कि क्या स्थानीय प्राधिकरण ने सामानों के मूल्य की कोई महत्तम सीमा निर्धारित की थी? यदि किया था और वह उससे ज्यादा है तो यह नियम उल्लंघन का मसला है। लेकिन यदि कोई महत्तम सीमा निर्धारित नहीं की थी तथा यथोचित मूल्य लिख व्यवसायी के विवेक पर छोड़ दिया था, तब उसकी ऐसी आलोचना नहीं होनी चाहिए। अब यदि दूसरा कारण है तथा वह बोर्ड पर मेनू पर यह मूल्य लिखा है तो मतलब आपने उस सेवा के लेने से पहले अपनी एक मानसिक सहमति दी है, तब जाकर ऑर्डर किया है। अत: उसने जबरदस्ती ले लिया यह नहीं कहा जा सकता। पीने के बाद वह बाकायदा कंप्यूटर जनरेटेड बिल भी निकाल रहा है, अत: उसने कोई ऐसी बात कर दी हो कि उसे ट्रोल किया जाए, मुझे समझ में नहीं आता।
दरअसल ब्रांड का नशा आम जनमानस में ऐसा घुसा हुआ है कि उसके मूल्य की यथोचितता में वह कभी जाता ही नहीं, उसे लगता है कि यह जितना महंगा होगा, उतना अच्छा होगा, उसका स्टेटस सिंबल उतना बड़ा होगा। अगर हमें लोकल को ग्लोबल बनाना है तो हमें विदेशी ब्रांड के मोहमाया की मानसिकता से बाहर आना होगा। आज हम विदेशी ब्रांड के कपड़े जूते पहनने में बहुत ही गर्व महसूस करते हैं। उसे बेचने के लिए भारत में कई कंपनियां या तो उसे यहां बनाती हैं या रेडीमेड उसे आयात करती हैं। दोनों ही परिस्थितियों में यहां बनाने या रेडीमेड आयात करने की परिस्थिति में मूल लागत कम होती है। यहां मूल लागत मतलब मैटेरियल और डायरेक्ट श्रम से है। गैप काफी बड़ा होता है इस डायरेक्ट कॉस्ट से कहीं ज्यादा यह गैप डिजाइन, ओवरहेड और ब्रांड का होता है। मतलब हम जो मूल्य ब्रांडेड कपड़ों, जूतों, ज्वेलरी का दे रहें हैं, उसमें उसकी मूल लागत के साथ हम ब्रांड का मूल्य दे रहे हैं, जो विदेशी कंपनी के खाते में रॉयल्टी के नाम से जा रहा होगा और जिस पर वह अंतर्राष्ट्रीय कराधान के दोहरे कराधान से बचाव वाले नियमों के तहत कम टैक्स का लाभ ले भारत से ही कमा रहा होगा। हम अनजाने में विदेशी कंपनियों के ब्रांड कस्टमर बन रहें हैं और भारत का पैसा बाहर भेज रहें हैं।
अगर उससे कम पैसे में हम यदि स्वदेशी माल खरीदें, स्वदेशी माल को ग्लोबल ब्रांड बनाएं तो क्या दिक्कत है। १० हजार या लाख रुपए के कपड़े में ऐसा क्या मैटेरियल होता है, जो स्वदेशी कपड़े में नहीं होता? खादी को ही लें, गांधी आश्रम में एक से बढ़कर एक कपड़े और डिजाइन हैं जबकि उसी कपड़े को अलग ब्रांड कई गुना मूल्य रख बेचती है और हम खुशी-खुशी खरीदते हैं लेकिन गांधी आश्रम में शायद ही कभी मुड़ते हैं। ब्रांड की मोहमाया एक नशा है, जिसमें हमें फंसाया जा रहा है। हमें प्रथम गुणवत्ता पर ध्यान देना चाहिए, यदि देशी सामान की गुणवत्ता उत्तम है तो इसे प्राथमिकता देने में हमें कोई परहेज नहीं करना चाहिए। सरकार को भी जो विलासिता वाले सामान हैं, जैसे कपड़े जूते ज्वेलरी आदि के ब्रांड पर दिए जाने वाले रॉयल्टी पर उच्च कर दर रखनी चाहिए, अंतर्राष्ट्रीय कराधान के दोहरे कराधान से बचाव वाले नियमों में बदलाव करना चाहिए। क्योंकि ये ब्रांड भारत में सिर्फ माल ही नहीं बेच रहे हैं, ये जिस सेगमेंट का माल बेच रहें हैं, वह एमएसएमई सेगमेंट का बाजार है। यह भारत के ग्राहक को ब्रांड का आकर्षण बेच कर एमएसएमई का बाजार छीन रहे हैं। कपड़े, जूते, रेस्टॉरेंट, ज्वेलरी में एमएसएमई सरंक्षण की नीति अपनाते हुए अब जरूरी हो गया है कि ब्रांड की घुसपैठ के कारण इनको होने वाले नुकसान का आकलन किया जाए और तदनुसार नीति बनाई जाए, तभी हमारी ‘वोकल फॉर लोकल’ की योजना सफल हो पाएगी।
(लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री व सामाजिक तथा राजनैतिक विश्लेषक हैं।)