मुख्यपृष्ठस्तंभअर्थार्थ : तकनीकी का साम्राज्यवाद

अर्थार्थ : तकनीकी का साम्राज्यवाद

पी. जायसवाल मुंबई

अभी पिछले दिनों माइक्रोसॉफ्ट में आई एक गड़बड़ी ने दुनिया के एक बड़े हिस्से को रोक ही दिया था। हमारे समाज में तकनीक ने ऐसी जगह बना ली है कि उसके बिना हमारा सिस्टम ढहने के कगार पर आ जाता है। पिछली सदियों में जब यूरोप द्वारा लादी गई औद्योगिक क्रांति का दौर था तो चंहुओर पूंजीवाद एवं इसके दुष्प्रभावों की चर्चा थी कि वैâसे संसाधन कुछ मुट्ठियों में इकट्ठे होते जा रहे हैं, मार्क्स जैसे विचारक आए। आज धीरे-धीरे इस औद्योगिक क्रांति का स्थान बाजार और तकनीक क्रांति ने ले लिया। कॉन्ट्रैक्ट मैन्युपैâक्चरिंग और जॉब वर्क के माध्यम से पूंजीवाद ने बाजारवाद का वस्त्र पहन लिया। अब दौर तकनीक के साम्राज्यवाद का है। आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस ने इसे ऐसा प्यारा डर बना दिया है कि कई देश इससे डर भी रहे हैं, लेकिन लागू भी कर रहें हैं।
पहले पूंजीवाद की आलोचना इसीलिए भी होती थी कि पूंजीवाद मुनाफाखोर था। मूल्य का सिस्टम उनके हाथ में था। इस तकनीक के साम्राज्यवाद में भी वही हुआ है। इस आभासी दुनिया के मूल्यांकन का कोई भी पारदर्शी व्यवस्था नहीं है। एक ही सेवा की विभिन्न कंपनियां भिन्न-भिन्न मूल्य वसूलती हैं। मूल्यों में मानकपन है ही नहीं। शुरुआत में आईटी कंपनियों ने ऊल-जुलूल पैसे वसूले। इसका पैâलाव इतने चुपके से होता है कि कई को पता ही नहीं लगता है और सब कुछ लुट जाता है, मेरु और टैब वैâब टैक्सी सेवा को तो हवा ही नहीं लगी कि कब ओला, उबर ने उनके सारे निवेश को एक झटके में खत्म कर दिया। ठीक वैसे ही काली-पीली टैक्सी वालों को पता नहीं लगा कि कब मेरु, टैब वैâब और बाद में ओला व उबर ने उनके बाजार पर कब्जा कर लिया, आज उनका निवेश लाभ के लिए संघर्ष कर रहा है। कुछ ऐसा ही देशभर में कचहरी के बाहर पैâले झटपट स्टूडियो वालों के साथ हुआ। मोबाइल वैâमरे और आधुनिक प्रिंटर के आविष्कार ने उनकी जड़ ही खत्म कर दी, साथ में जबसे मोबाइल पर वैâमरे आने लगे, तबसे तो टूरिस्ट प्लेस के फोटोग्राफर भी ग्राहकों के लिए तरसने लगे। रील वाले वैâमरे का बाजार पहले डिजिटल वैâमरे ने छीना, बाद में इन डिजिटल वैâमरे का बाजार मोबाइल वैâमरों ने छीन लिया।
अब तो टीवी से ज्यादा समय लोग ओटीटी या मोबाइल पर खर्च करते हैं और इसने टीवी चैनलों के लिए भी नई चुनौती पैदा कर दी है। करोड़ों रुपए लगाकर न्यूज चैनल खोलने वालों के सामने हजार रुपए खर्च कर लाखों की संख्या में यूट्यूब चैनल आने लगे। वो दिन दूर नहीं, जब बड़ी संख्या में लोग थिएटर जाना बंद करके घर पर ही नई रिलीज हुई मूवी अपने स्मार्ट टीवी पर होम थिएटर सिस्टम लगाकर देखेंगे। कोरोना के बाद भी मूवी रिलीज डीटीएच सेवा प्रदाता, ओटीटी, नेटफ्लिक्स, अमेजन प्राइम और यूट्यूब या ऐसे ही प्लेटफॉर्म पर हो और ये प्लेटफॉर्म थिएटर से ज्यादा पैसा बनाएं, इसी तरह अगली कड़ी में अगला संकट इन डीटीएच सेवा प्रदाताओं पे भी आने वाला है। तकनीक इतनी तेजी से पिछले को खत्म कर रही है कि जिसने इसके साथ कदमताल नहीं किया, उसे पता ही नहीं चलेगा कि कब उसकी दुनिया खिसक गई।
कुछ ऐसा ही भारत में सीए लोगों के साथ भी हो सकता है, जब सब कुछ ऑनलाइन नहीं था, तब उनके प्रमाणन की आवश्यकता थी। अब तो सब डिजिटल प्रमाणित आता है और समाधान विवरण के साथ हो सकता है कि कुछ साल बाद इनके प्रमाणन की आवश्यकता ही नहीं रहे। एक बिजनेस का ९० प्रतिशत हिस्सा उसका खरीद-बिक्री होता है। वह तो अब जीएसटी पोर्टल प्रमाणित कर दे रहा है। बाकी का डाटा आयकर विभाग को डाटा माइनिंग से मिल जा रहा है फिर उसे अलग से सीए का टैक्स ऑडिट प्रमाणन की जरूरत ही क्यों पड़ेगी। आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस के विस्तार ने कई जगहों से जहां मानवीय निर्णयन को खत्म किया है और वह डॉक्टर से लेकर कोई भी काम हो सकता है। तकनीक का जन्म एक ह्यूमन जजमेंट ने किया था, अब इसी तकनीक का मिशन हर उस जगह का स्थान लेना है जहां ह्यूमन जजमेंट प्रयोग होता है इसलिए अगर मेट्रो चालकविहीन आ रही है तो इस पर खुश होने की जरूरत नहीं है।
एक समय था बाजार में मोटोरोला और नोकिया के फोन का ही दबदबा था और वो हौले-हौले आ रही स्मार्ट फोन, एंड्रॉयड एवं एपल के कदमों की आहट सुन नहीं सके, बहुत देर में जागे, तब तक बाजार में एंड्रॉयड एवं एपल सपोर्ट मोबाइल की बाढ़ आ गई और आज बाजार में इनकी उपस्थिति नगण्य है। मोबाइल की दुनिया में एक गलती माइक्रोसॉफ्ट ने भी कर दी, वह अपने डेस्कटॉप और लैपटॉप के ऑपरेटिंग सिस्टम पे ही ध्यान देती रही और उसे देर से पता चला कि कंप्यूटर की दुनिया अब मोबाइल में सिमट गई है। अब कंप्यूटर के लगभग सारे काम मोबाइल से ही हो जा रहे हैं। मोबाइल टैबलेट भी अब बाजार से बाहर जा रहे हैं, क्योंकि अब मोबाइल ही इतने सक्षम हो गए हैं कि टैबलेट का काम करने लगे हैं।
अगला उदाहरण याहू का है, एक समय इंटरनेट मतलब याहू था, ईमेल और चैट मतलब याहू, लेकिन इसने भी बदलते वक्त के साथ अपने को बदला नहीं और जीमेल के आहट को सुन नहीं सका और आज बाजार से बाहर हो गया। आज के दौर में कुछ बिजनेस सेगमेंट ऐसे भी हैं, जो यदि समय की आहट को पहचान नहीं सके तो उनका भी पतन निश्चित है। उसमें पहला थिएटर और मल्टीप्लेक्स का बिजनेस है। जिस तरह से नेटफ्लिक्स, अमेजन प्राइम जैसे कई ने अपना दायरा बढ़ाया है। उसके साथ ही स्मार्ट टीवी और होम थिएटर की बिक्री बढ़ी है। जियो के आने से डाटा सस्ता हुआ है, लोग अब थिएटर जाना कम कर रहे हैं। जिओ के सस्ते डेटा से फायदा भी हुआ है। गांवों, कस्बों के कई लोगों को दुनिया का डायरेक्ट बाजार मिला है।
ये तो उदाहरण है, जिसमें तकनीक ने सक्षम लोगों को धराशायी कर दिया है। जरा सोचिए जो सक्षम नहीं हैं, उसका क्या हाल होगा? अगर तकनीक इसी तरह पिछले को दमित करते हुए आगे बढ़ गई तो पृथ्वी के इस ८०० करोड़ की आबादी का क्या होगा? आज पृथ्वी पर सबसे बड़ी समस्या जनसंख्या अधिकता की है और कोई भी नीति यदि इनके समायोजन को उपेक्षित करके या इन्हें रिप्लेस करने के लिहाज से बनेगी तो एक छोटे गड्ढे को भरने के लिए हम बड़ा गड्ढा खोद रहे हैं। मशीनों का इस्तेमाल होना चाहिए, लेकिन इतना नहीं कि आदमी ही खाली हो जाए। हमारे पास भी दिन के २४ घंटे होते हैं, लेकिन इन २४ घंटे में लगातार हम काम नहीं करते हैं। इसे हमने संतुलित घंटों में बांटा है, ताकि हम लंबी अवधि तक जीते हुए काम करते रहें। इस तकनीक का संतुलन बिंदु हमें ढूंढ़ना पड़ेगा, नहीं तो तकनीक का पूंजीवाद औद्योगिक पूंजीवाद से ज्यादा प्रभावित करने वाला है और यह जनसंख्या आधिक्य ग्लोबल वॉर्मिंग से ज्यादा खतरनाक होगा। यह सिर्फ दुनिया की चुनिंदा कंपनियों फेसबुक, व्हॉटसऐप, ट्विटर का मसला नहीं है। ये तो ऑरकुट, याहू की तरह आई है तो एक दिन इनकी जगह कोई और आ जाएगा। सबसे बड़ा खतरा हमारी नीति निर्माण की सोच है, जो यहीं से शुरू होती है की मानवीय हस्तक्षेप को खत्म करना है। अब अगर मानव व्यस्त नहीं रहेगा तो क्या करेगा? इसलिए हमें इस तकनीक के साम्राज्यवाद की काट और इसके विकास का संतुलन बिंदु खोजना पड़ेगा, नहीं तो एक दिन यही तकनीक मानव जाति की दुश्मन बन जाएगी।
(लेखक अर्थशास्त्र के वरिष्ठ लेखक एवं आर्थिक, सामाजिक तथा राजनैतिक विषयों के विश्लेषक हैं।)

अन्य समाचार