मुख्यपृष्ठस्तंभअर्थार्थ : आयकर की असमानता

अर्थार्थ : आयकर की असमानता

पी. जायसवाल
मुंबई

पहली असमानता जैसा कि पिछले लेख में मैंने बताया था कि टीडीएस के एक प्रावधान से वैâसे यदि कोई अनिवासी भारतीय अपनी कोई संपत्ति किराए पर देता है तो किराएदार को ३१.२ फीसदी टीडीएस काटकर उसे भुगतान करना पड़ता है वही यदि मकान-मालिक निवासी भारतीय है तो ५० हजार मासिक किराए तक तो जीरो टीडीएस है और ५० हजार से अधिक पर ५ फीसदी ही टीडीएस। ऐसे में अधिकतर अनिवासी जिनके पैतृक घर या अर्जित घर दोनों भारत में हैं और जड़ों से जुड़ने की इच्छा से वह अगर भारत में अपनी संपत्ति रखना चाहते हैं तो उनकी साथ समान ट्रीटमेंट होना चाहिए जैसा निवासी करदाता को मिलता है। देश के प्रति दिखाई गई उनके मोहब्बत के बदले यह ट्रीटमेंट उन्हें निराश कर सकती है और उनके निवेश के विकल्पों पर पुनर्विचार के लिए प्रेरित कर सकती है। अत: सरकार को कम से कम भारतीय मूल के अनिवासियों के किराए की आय पर टीडीएस की दर को निवासियों के बराबर कर देना चाहिए, भले ही सालाना अंतिम आयकर को यथावत रखे। इससे उनका कॅशफ्लो प्रभावित नहीं होगा।
दूसरी असमानता आयकर की दर है। कहने को तो यह प्रगतिशील कर व्यवस्था है, जिसमें जो ज्यादा कमाएगा उसे ज्यादा कर देने होंगे, लेकिन यहां मैं उस गैप की तरफ ध्यान इंगित कराना चाहूंगा जो इस व्यवस्था में मौजूद है। भारत जैसे विशालकाय देश जहां आय एवं जीवनस्तर की भिन्नताएं व्यापक रूप में मौजूद हों वहां मौजूदा आयकर की व्यवस्था प्रगतिशील, व्यावहारिक और न्यायसंगत नहीं है। एक ही व्यक्ति अगर दो अलग-अलग शहरों में रहता है तो जीवनस्तर और आयकर के कुछ कानूनों के कारण उसपर लगने वाला आयकर भार और बचत अलग-अलग है, इन भिन्नताओं के कारण एक देश एक आयकर दर न्यायसंगत नहीं हो पा रहा है, जो आयकर की दर और छूट सरकार गोरखपुर या उस जैसे अन्य छोटे शहरों को देती है। वैसा ही दर या छूट सरकार को मुंबई या मुंबई जैसे बड़े शहरों को नहीं देना चाहिए। उन्हें कुछ अतिरिक्त रियायत मिलनी चाहिए। एचआरए की अतिरिक्त छूट पर्याप्त नहीं है और वह भी केवल नौकरीपेशा और उन्हीं नौकरी पेशा जिन्हें एचआरए मिलता है उन्हें ही यह प्राप्त होता है। सिर्फ आय का एंगल नहीं बचत का स्तर क्या है उस एंगल को भी इस बजट में देखना चाहिए।
उदाहरण के तौर पर मुंबई और मुंबई जैसे बड़े शहरों के करदाताओं के लिए जिनके मूलभूत खर्च का स्तर छोटे शहरों से कई गुना ज्यादा हो, वहां सरकार को इन बड़े शहरों के लिए कोई मानक कटौती जैसी व्यवस्था या रियायत दर वाली कर दर लगानी चाहिए। रियायत दर वाली कर व्यवस्था अगर सरकार के लिए कठिन लग रही है तो सरकार को टैक्स जोन परिभाषित करना चाहिए। जैसे कि शहर दर शहर जीवन स्तर खर्च सूचकांक के हिसाब से और आय में से एक निश्चित राशि की मानक कटौती लानी चाहिए। मुंबई के निवासियों और इस जैसे अन्य शहरी निवासियों के लिए। शहर-दर-शहर यह मानक कटौती सरकार निश्चित कर ले या इसका कुछ रास्ता निकाले ताकि इसका गलत इस्तेमाल भी न होने पाए। यह मानक कटौती सिर्फ वेतनभोगी करदाताओं के लिए नहीं सबके लिए हो, तब जाकर भारत की आयकर व्यवस्था न्यायसंगत हो पाएगी। मेरी सलाह में तो आयकर की इस असमानता को दूर किया जाए। जीवन स्तर खर्च सूचकांक के आधार पर मानक कटौती या किसी अन्य माध्यम से शहरी क्षेत्र के करदाताओं को कुछ राहत दी जाए ताकि वह इस असमानता का शिकार न हों। अगर आयकर अधिनियमों के काम लायक टैक्स जोनवार जीवन स्तर खर्च सूचकांक तैयार न हो तो सरकार को आयकर को ध्यान में रखते हुए फाइनेंस एक्ट में ही प्रतिवर्ष जीवन स्तर खर्च सूचकांक आयकर हेतु पब्लिश की जानी चाहिए, जैसे वैâपिटल गेन में इंडेक्स बनता है।
तीसरी असमानता है कॉर्पोरेट और नॉन-कॉर्पोरेट के बीच कर दर की असमानता। सरकार कॉर्पोरेट करदाताओं के लिए आयकर की रियायती व्यवस्था लेकर आई है, जिसके तहत एक निश्चित सीमा से नीचे बिक्री वाली कंपनियों के लिए आयकर की दर २५ फीसदी हो गई है। यहां तक कि सरचार्ज भी असंगत है। कॉर्पोरेट फर्म वाले व्यापारी को एक करोड़ से दस करोड़ के ब्रेकेट में आय रहने पर सरचार्ज ७ फीसदी है, जबकि फर्म को सीधे १० फीसदी है। एक व्यक्ति जो कि एकल व्यवसाय या साझेदारी फर्म बनाकर व्यापार करता है और जिसका व्यापार उस निश्चित सीमा से कम है को कॉर्पोरेट टैक्स की तुलना में ज्यादा कर की दर है। कॉर्पोरेट फर्म को टैक्स कम पड़े उसके लिए कुछ विशेष शर्तों के साथ २२ फीसदी और १५ फीसदी की भी कर दर की व्यवस्था है जबकि ऐसी व्यवस्था फर्म या अन्य करदाताओं को प्राप्त नहीं है। भले ही व्यापार का क्षेत्र और प्रकृति समान हो। यह सरकार के एमएसएमई के सरंक्षण पल्ल्वित और पुष्पित करने की नीति के भी उलट है क्योंकि ज्यादातर नॉन-कॉर्पोरेट फर्म इसी सूक्ष्म लघु मध्यम व्यापार से आते हैं। उदाहरण के तौर पर यदि दो व्यापारी हैं और दोनों एक ही क्षेत्र में व्यापार करते हों। दोनों के टर्नओवर मान लीजिए मान्य निश्चित सीमा से नीचे ५० करोड़ रुपए हैं और दोनों की शुद्ध आय १० प्रतिशत मतलब ५ करोड़ रुपए हैं तो कंपनी वाले को जहां कम टैक्स देने पड़ेंगे वही गैर कंपनी वाले को ज्यादा टैक्स देने पड़ेंगे। यह असंगत व्यवस्था बड़ी है और एमएसएमई के उद्देश्यों के उलट है। सरकार को छूट अगर बिजनस सेगमेंट को देनी ही है तो सारे बिजनस सेगमेंट को देनी चाहिए, चाहे वो कॉर्पोरेट हो या न हो। एक ही कानून के अंदर धाराओं की व्यवस्था व्यक्ति के स्वरूपों के आधार पर पक्षपातपूर्ण नहीं होनी चाहिए, अगर दोनों समान क्षेत्र में और समान प्रकृति वाले हों तो। इसीलिए अब आयकर में यह बदलाव इसी बजट में करने की कोशिश करनी चाहिए। १९६१ में बने इस वर्तमान आयकर अधिनियम को प्रोविजो एवं संसोधनों के माध्यम से बाहर निकल नई व्यवहारिकता पर आधारित कानून लाना चाहिए। नया आयकर समय की मांग है, जब जीएसटी जैसा बड़ा टैक्स रिफॉर्म जल्दी से आ सकता है ठीक वैसे ही आयकर में भी बड़ा बदलाव आना चाहिए। कुल मिलाकर यह आशातीत बजट है एनडीए सरकार से जनता को बहुत उम्मीदें हैं।
(लेखक अर्थशास्त्र के वरिष्ठ लेखक एवं आर्थिक, सामाजिक तथा राजनैतिक विषयों के विश्लेषक हैं।)

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