मुख्यपृष्ठस्तंभअर्थार्थ : २६ अक्षरों की शक्ति

अर्थार्थ : २६ अक्षरों की शक्ति

 पी. जायसवाल
मुंबई
सनातन अर्थशास्त्र का जो सिद्धांत है वह यह कहता है कि इस ज्ञात अज्ञात ब्रह्मांड में संसाधन असीमित हैं और हमारी आवश्यकताएं या दृष्टि वहां तक विस्तारित नहीं हुई है कि वे ब्रह्मांड का विकास कर सकें। जितना हम दृष्टि डाल पाते हैं उतना ही हम विकास कर पाते हैं। इसी चीज को हम अपने आसपास के माध्यम से समझते हैं जो इस बात में सहायता करता है कि वैâसे हम अपनी शक्ति को पहचानें ताकि जो हमारे अंदर संभावनाएं छुपी हुई हैं उन्हें हम आगे ला सकें और अपना विकास कर सकें। हर व्यक्ति के अंदर क्षमता और शक्ति होती है, जरुरत होती है उस पहचानने की। सबसे पहले हम इसे २६ अक्षरों की शक्ति के उदहारण से समझते हैं फिर कुछ आसपास के अन्य सामान्य उदाहरणों से।
आप सोच रहे होंगे कि अंग्रेजी के २६ अक्षर और अर्थशास्त्र में क्या संबंध है, जबकि वास्तव में संबंध है। और जहां तक मेरा मानना है कि अर्थशास्त्र के रहस्य को समझने के लिए यह सबसे बढ़िया उदाहरण है। आपने अक्सर सुना होगा कि अमुक किताब हजारों में बिकी, लाखों में बिकी या करोड़ों में बिकी। कभी आपने उन तीन तरह की किताबों को खुद लेकर के पढ़ा है, नहीं पढ़ा है तो पढ़िए। पढ़ने के बाद आप कोई एक भी ऐसा अक्षर लेकर आइए जो अंग्रेजी के इन २६ अक्षरों ‘ए’ से लेकर ‘जेड’ के अलावा आया हो। यह सत्य आप पाएंगे कि इन २६ अक्षरों के अलावा दूसरा अक्षर नहीं होगा। इसका क्या अर्थ निकलता है? इसका अर्थ आप यही समझिए की अक्षर तो वही २६ हैं, लेकिन किसी कलाकार व्यक्ति ने अक्षरों का ऐसा संयोजन किया कि वो अर्थवान शब्द बन गए हैं और फिर दूसरे कलाकार व्यक्ति ने उन शब्दों का ऐसा संयोजन किया कि वो अर्थपूर्ण वाक्य बन गए हैं और उन लेखनियों से भावनाएं बाहर आने लगी हैं। और इन्ही भावनाओं का मूल्य सैकड़ों से होते हए करोड़ों तक पहुंच गया है। मतलब २६ अक्षर रूपी यह संसाधन तो सभी के पास उपलब्ध है जो प्रयोग कर पाता है और जैसे प्रयोग कर पाता है जिस स्तर का प्रयोग कर पाता है वैसा वह उसका मूल्य पाता है। अब आप इसका अर्थशास्त्र से संबंध समझिए, सनातन अर्थशास्त्र भी यही बात करता है कि सब कुछ यहां मौजूद है बस उसका उचित संयोजन करने वाला चाहिए, साधन असीमित मात्रा में मौजूद है हमें प्रयोग करना सीमित मात्रा में आता है जिस दिन हमारी सूचनाओं, ज्ञान एवं दृष्टि का विकास होता जाएगा हमारा, हमारे क्षेत्र और हमारे देश का अर्थशास्त्र विकसित होता जाएगा।
अंग्रेजी के इन २६ अक्षरों के अलावा एक उदाहरण गीत संगीत का भी लेते हैं। अपने जीवनकाल में आप ने हजारों गीत-संगीत सुने होंगे, लेकिन आपको अगला गीत पिछले गीत से अलग ही महसूस होता है जबकि उनमें भी उन्हीं अक्षरों का और उनसे बने शब्दों का ही इस्तेमाल होता है। एक समय विशेष पर लगता है कि जो गाने बने हैं या जो धुन बने हैं उतने ही बन सकते हैं उसके अलावा नहीं बन सकते, लेकिन जब गीतकार और संगीतकार मिल कर नया गाना और नया धुन तैयार करते हैं उन्ही विद्यमान शब्दकोशों और विद्यमान वाद्य यंत्रों से तो हर बार एक नए गाने का जन्म होता है जिसका वह फिर से नया मूल्य वसूलते हैं। मतलब संभावनाएं मौजूद हैं दृष्टि और एक जौहरी विशेष चाहिये जो उचित संयोजन से परिणाम को मूल्यवान कर सके।
शब्दों और अक्षरों को मूल्यवान बनाने में भाषा एक बुनियादी सरंचना के रूप में कार्य करती है जो अव्यक्त को व्यक्त बना देती है। भाषा इस गृह के प्राणियों के द्वारा एक अद्भुत एवं सबसे मूल्यवान और बुनियादी आविष्कार है। भाषा मतलब संवाद का माध्यम जो शुरू में संकेतों एवं आवाज के माध्यम से विकसित होते हुए लिपि के माध्यम में परिवर्तित हुई। भाषा के माध्यम से ही संवाद की तीव्रता बढ़ी, शोध एवं इतिहास आगे बढ़े, लोगों के बीच बढ़े संवाद से उनकी आर्थिक गतिविधियां भी बढ़ीं और सभ्यतायें अपने आपको समृद्ध बना सकीं। आज भाषा के माध्यम से ही हम और आप समाज से या राष्ट्र से या किसी और देश-विदेश के नागरिकों से जुड़े हुए हैं। जरा सोच कर देखिए कि भाषा की अनुपस्थिति में हमारी मौजूदा हालत, संवाद के माध्यम एवं आर्थिक, सामाजिक और व्यक्तिगत स्थिति क्या होती? उपरोक्त उदाहरणों में २६ अक्षरों की शक्ति या गीत संगीत की शक्ति देख लीजिए। बिना भाषा के इस स्थिति को पाना कितना मुश्किल होता है। इसलिए बुनियाद के लिए भाषा ज्ञान जरुरी है।
भाषा और अक्षर की बात हो रही है तो उदाहरण के एक और स्वरूप में आप देख सकते हैं कि शिक्षा और ज्ञान का योगदान। ज्यादातर लोग न तो कोई संपत्ति के साथ पैदा होते हैं और न ही उनके पिता पूंजीपति होते हैं। फिर भी उनके पास एक पूंजी होती है उनका लगन, उनकी बौद्धिक क्षमता और उसी अनूरुप शिक्षा। अगर उन्होंने अपनी लगन और उनकी बौद्धिक क्षमता को अनुकूल शिक्षा में लगाया और अपने आपको सामाजिक और व्यक्तिगत रूप से उत्पादकीय रूप में ढाला है तो उन्होंने समय के प्रवाह के साथ आर्थिक विकास किया है। अगर उन्होंने लगन, बौद्धिक क्षमता और उसी अनूरुप शिक्षा का चयन नहीं किया होता तो वे समाज के सापेक्ष अनुकूलतम उत्पादकीय नहीं बन पाते होते और यह भी हो सकता था कि वे समाज पर बोझ हो जाते या उनका विकास धीमा होता। इसलिए अगर विकास करना है तो हमें सनातन अर्थशास्त्र के सूत्र को ढूंढना पड़ेगा। जिसका मंत्र है ‘अहं ब्रह्मास्मि’।
(लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री व सामाजिक तथा राजनैतिक विश्लेषक हैं।)

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