दर्पण

अपनी शोहरत की
वाहवाही लूटने के
सियासी नशे से,
आ जाए गर बाहर तो
खुद अपने ही किरदार से
आंख न मिला पाएंगे!
हर लम्हा है इम्तहान यहां,
हक मान के रखा है
जिन सांसों पर
पुरजोर अपना,
लगाम उसकी रखी है थाम,
रब ने अपने हाथ!
अपने रुतबे का
पालो मत गुरुर अन्धा,
परवानगी रोशनी पर ही
है मुमकिन जग में,
बुझी लौ से तो कोई
उम्मीद करता नहीं!
आईना दिखाने का शौक,
गजब का रखते हैं
यहां सब जहां में,
दर्पण खुद का जब
हो सामने हकीकत से
पर्दा उठ जाता है
इंतकाम की आग में,
गुमशुदा हो जाती है
जिंदगी तमाम,
ना रहते जिसमें जज्बात
और ना ही रहती कायम
सांसों में रफ्तार!
-मुनीष भाटिया
मोहाली

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