धुंध ही धुंध।

धुंध ही धुंध
नभ, पहाड़ों, घाटियों
मैदानों पर ही नहीं,
जन मानस के मन मस्तिष्क
पर भी छाई हुई है।
नारी दिवस पर चिल्ला-चिल्ला कर
‘नारी-पुरुष बराबर है ‘
के नारे प्रत्येक वर्ष लगाते है
हम सरासर झूठ फैलाते हैं।
कुछ लिखने वालों ने लिखा
कुछ पढ़ने वालों ने पढ़ा
यह लिखा, पढ़ा, रैलियों में गरजा
कितना सत्य है? हम जानते हैं।
नारी के प्रति जन मानस की क्या मानसिकता है
कितना हम जानते हैं?
यह भ्रम शून्य से ऊपर कुछ नहीं।
मर्यादा का ताना-बाना
परिवार के भीतर से ही
रेशा-रेशा है रहा है।
हाथों में उछलती तख्तियां
जलती मोमबत्तियां
सड़को पर निकलती रैलियां
कुन्ती की आंखों पर बंधी पट्टियां हैं।
छानबीन, पुलिस, न्यायालय सभी कुछ
हम ही हैं, नहीं और कोई।
आंखें, ग्रीवा,वक्ष, बाहें, जांघें
हम ही तोड़ते हैं,
तख्तियां, लाउडस्पीकर ले कर हम
हुजूम बना सड़कों पर निकलते हैं।
हम सबूत मिटाते फिर
सबूत ढूंढने निकल पड़ते हैं।
सब धुंध के पीछे होता है
धुंधलाई आंखें देख कर भी नहीं देखती
सुनते हुए हम बहरे हो जाते हैं।
इस नृशंस घटना में नोची गई नारी
मेरी कुछ नहीं लगती।
अगली घटना की प्रतीक्षा है
और कुछ दिन हड़ताल,पर बैठ जायेंगे।
घर परिवार से नारी सम्मान का
पाठ पढ़ना,पढ़ाना होगा
मोबाइल की लाइट, मोमबत्तियां नहीं
अब मशालों को जलाना होगा
धुंध हटा कर धुंध के पार देखना होगा।
बेला विरदी।

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