डॉ. दीनदयाल मुरारका
स्वामी रामतीर्थ उन दिनों अमेरिका में थे। लोग उनके पास अपनी समस्या लेकर आते और संतोष की मुस्कान के साथ लौटते थे। एक दिन एक महिला आई जो बड़ी गुमसुम और अवसाद से घिरी हुई थी। किसी ने बताया कि स्वामी रामतीर्थ उसकी समस्या सुलझा सकते हैं। वह जैसे-तैसे आ तो गई, पर कुछ बोल पाने में असमर्थ थी। काफी देर वह जड़ सी बैठी रही। रामतीर्थ ने भी उससे कुछ नहीं कहा। बस, करुणा भरी नजरों से उसे निहारते रहे। थोड़ी देर बाद महिला रोने लगी। स्वामी जी उसे स्नेह भाव से निहारे जा रहे थे। फिर आंसू भरी आंखों और भरे हुए गले से उसने अपनी व्यथा स्वामी जी को सुनाई। उसके दुख का सार यह था कि वह प्रेम में छली गई थी। तन, मन, धन सब कुछ लुटाने के बाद भी उसे धोखा और हताशा मिली थी।
उसकी सारी बातें सुनने के बाद रामतीर्थ बोले, बहन यहां हर कोई अपनी क्षमता के अनुसार ही बर्ताव करता है। जिसके पास जितनी शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं भावनात्मक क्षमता है वह उसी के अनुसार व्यवहार करने के लिए विवश है। जिनकी भावनाएं स्वार्थ एवं कुटिलता में सनी हैं, वे तो बस केवल क्षमा के पात्र हैं। उन्हें प्रेमपूर्ण हृदय से क्षमा कर देना चाहिए। वे बड़े ही विवश हैं, बेचारे। इस पर महिला का प्रश्न था, तब क्या जीवन में सच्चा प्रेम पाना असंभव है। स्वामी रामतीर्थ ने कहा, ऐसा नहीं। सच्चा प्रेम मिलता है, पर उन्हें जो सच्चा प्रेम करना जानते हैं। इस पर महिला बोली, मेरा प्रेम भी तो सच्चा था। स्वामी बोले, नहीं बहन, तुम्हारे प्रेम में स्वार्थ था। कुछ पाने की अपेक्षा थी, जबकि सच्चे प्रेम में कुछ पाने की भावना नहीं होती। सिर्फ देने का ही भाव होता है। सच्चा प्रेम करुणा एवं श्रद्धा के रूप में प्रकट होता है। वह महिला, स्वामी रामतीर्थ जी का आशय समझ गई। उसने जीवन में प्रेम के प्रति अपने विचारों में सुधार लाने का तय किया।