डॉ. दीनदयाल मुरारका
चित्रकार पिकासो के पास एक बार उनका मित्र आया। पिकासो उस समय चित्र बनाने में व्यस्त थे। मित्र ने उन्हें चित्रकारी करते देखा। मित्र ने उनकी एकाग्रता में व्यवधान डालना उचित नहीं समझा और वह तुरंत वापस लौट गया। बाद में जब वह चित्र बाजार में बिकने आया तो मित्र ने उसे खरीद लिया, क्योंकि बाजार में पिकासो के नकली चित्र भी बिक रहे थे और वह चित्र उसने खुद पिकासो को बनाते हुए देखा था। उसे विश्वास हो गया था कि यह पिकासो का असली चित्र है।
उसने उस चित्र की भारी कीमत चुकाई और उसे घर ले आया। एक बार वही मित्र उस चित्र को लेकर पिकासो के पास गया और पूछा यह चित्र प्रामाणिक तो है न? मैंने खुद तुम्हें इस चित्र को बनाते हुए देखा था। पिकासो ने कहा-बनाया तो मैंने ही है, लेकिन यह पेंटिंग प्रामाणिक नहीं है। मित्र बड़ा हैरान हो गया। क्योंकि उसके ध्यान से प्रामाणिक का अर्थ तो यही होता है कि उसे चित्रकार ने खुद बनाया हो। किसी ने उसकी नकल न की हो। पिकासो ने कहा-यह सही है कि मैंने यह चित्र बनाया है, पर इसे बनाते समय मैं रचनाकार नहीं था, बल्कि अपने ही चित्रों की नकल कर रहा था। मेरा खुद का यह मानना है कि इस चित्र को बनाते समय मैं स्रष्टा नहीं था। मित्र बड़ा हैरान हुआ। इतनी बड़ी राशि व्यय करके उसने चित्र खरीदा था और चित्रकार अब खुद कह रहा है कि चित्र प्रामाणिक नहीं है। उसने झल्लाकर पूछा, सृष्टा से आपका अर्थ क्या है? पिकासो बोले, `स्रष्टा मैं तभी होता हूं, जब कोई अद्वितीय चित्र बनाता हूं। इसका मतलब जब सृजन करता हूं। जब मैं अपनी ही पेंटिंग की नकल करता हूं, तब वैâसा स्रष्टा? इसलिए कवि, चित्रकार, मूर्तिकार जब कोई मौलिक कार्य करते हैं, वे तब परमात्मा के निकट होते हैं। उतने ही निकट जितने कि भक्त और संत होते हैं। पिकासो का ईमानदार सत्य सुनकर मित्र का सिर उसके प्रति श्रद्धा से झुक गया। पिकासो के द्वारा मित्र को सृजन का वास्तविक मतलब बताने से पेंटिंग के प्रति उसका भ्रम दूर हो गया।