मुख्यपृष्ठस्तंभमध्यांतर : कर्नाटक की जीत से उत्साह में मप्र कांग्रेस!

मध्यांतर : कर्नाटक की जीत से उत्साह में मप्र कांग्रेस!

प्रमोद भार्गव
शिवपुरी (म.प्र.)
फिलहाल, कर्नाटक में कांग्रेस की शानदार जीत से मध्य प्रदेश में कांग्रेस में ऊर्जा का संचार हुआ है, वहीं भाजपा सकते में है। इसका सबसे बड़ा कारण कर्नाटक में बजरंग दल के प्रतिबंध का कार्ड प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा खेले जाने के बावजूद भी नहीं चला और कांग्रेस १३६ सीटें जीतकर स्पष्ट बहुमत ले आई। जबकि भाजपा ६६ पर सिमटकर रह गई। अर्थात भाजपा ने मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया की बगावत का जो कार्ड खेलकर कमलनाथ सरकार को सत्ता से बेदखल कर दिया था, वैसा कोई खेल-खेले जाने की संभावनाएं दूर-दूर तक नहीं हैं। कांग्रेस जीती तो कर्नाटक में हैं, लेकिन बदलाव का प्रखर प्रभाव मध्य प्रदेश में दिखाई देने लगा। क्योंकि यहां की राजनीति में ज्यादातर हालात वैसे ही हैं, जैसे कर्नाटक में रहे हैं। इसलिए भाजपा हलाकान है।
मप्र में जनता जहां सत्ता विरोधी रुझान के चलते कांग्रेस के पक्ष में जाती दिख रही है, वहीं शिथिल प्रशासन और खुले भ्रष्टाचार ने मतदाता को तो भाजपा से दूरी बनाने को विवश किया है, वहीं कार्यकर्ताओं की नाराजी भी संगठन के पदाधिकारी दूर करने में नाकाम दिखाई दे रहे है। यही वजह है कि भाजपा व संघ ने वर्तमान विधायकों और सरकार की स्थिति के बारे में जो सर्वे और मतदाता की मंशा के आकलन कराए हैं, वे सब उसके विरुद्ध जा रहे हैं। चालीस विधायकों की यह स्थिति है कि वे किसी भी हाल में जीतने की स्थिति में नहीं हैं। इनमें सबसे ज्यादा संख्या उन विधायकों की है, जो सिंधिया के साथ अपनी मातृ संस्था कांग्रेस को दगा देकर सत्ता सुख के लिए भाजपा में शामिल हुए थे। इनमें से ज्यादातर विधायक प्रदेश सरकार में मंत्री और निगम या किसी मंडल के अध्यक्ष हैं। ग्वालियर-अंचल में यही वे सत्ताधारी हैं, जिनके हाथ पत्थर व रेत की खदानें हैं और वे उनका निर्दयता से दोहन कर रहे हैं। इन सच्चाइयों की जानकारी शिवराज से लेकर सिंधिया तक को है, लेकिन अंकुश लगाने को कोई आगे नहीं आया। नतीजतन, अब इन विधायकों को टिकट मिलते हैं तो इनकी हार तो निश्चित है ही, उन प्रत्याशियों को भी इनके दुष्प्रभाव का नतीजा भुगतना पड़ सकता है, जो ठेठ संघ और भाजपा से जुड़े हुए हैं। अब देरी इतनी हो चुकी है कि यदि भाजपा ने सर्वे के पैमाने को टिकट वितरण का आधार बनाया तो भी नुकसान की भरपाई करना मुश्किल है, इसीलिए भाजपा कार्यकर्ताओं की बेचैनी उन सब विधानसभा क्षेत्रों में प्रकट होने लगी है, जहां-जहां कांग्रेस से दल-बदल करके आए नेता उपचुनाव जीतकर सत्ता के हाथी पर बैठकर गुरूर में हैं।
इधर, आम आदमी पार्टी भी भाजपा की बेचैनी बढ़ा रही है। शिवपुरी विधानसभा क्षेत्र में खासतौर से वैश्य समाज महल के विरोध में दिखाई नहीं देता था, किंतु अब शिवपुरी विधायक और सरकार में कैबिनेट मंत्री यशोधरा राजे सिंधिया के विरुद्ध यही समाज सबसे ज्यादा मुखर हो रहा है। बीते पखवाड़े वैश्य समाज के एक बड़े कार्यक्रम में सिंगरौली से आप पार्टी की महापौर रानी अग्रवाल को शिवपुरी सामाजिक कार्यक्रम के बहाने आमंत्रित किया गया और लाल कोठी विवाह घर में कार्यक्रम संपन्न हुआ। रानी अग्रवाल ने यहां खुली राजनीति की और पत्रकारों से बातचीत में सरकार पर कटाक्ष करते हुए सभी २३० सीटों पर आप के प्रत्याशी उतारने की बात कही। इस चुनौती के बावजूद भाजपा के मंत्री और नेता साधु-संतों के प्रवचन कराकर मतदाताओं को साधने का भ्रम पाले हुए हैं। इन आयोजनों में करोड़ों रुपए खर्च कर नेताओं ने अपने भ्रष्टाचार को धर्म के आवरण से ढांकने की कोशिशें कीं। करैरा में साध्वी ऋतंभरा तो पिछोर में जया किशोरी को बुलाया गया। देवकीनंदन ठाकुर इस समय पिछोर में कथा कह रहे हैं। इधर गुना में बाघेश्वर धाम उर्फ धीरेंद्र कुमार शास्त्री भी बीते सप्ताह जनता को धर्म बनाम भाजपा का पाठ पढ़ाकर चले गए। लेकिन इन प्रवचन कर्ताओं की वाणी भाजपा के पक्ष में वोट डलवा पाएगी, यह कहना जल्दबाजी होगी।
बीच के १५ माह छोड़कर करीब २० साल से भाजपा सत्तारूढ़ है। मतदाताओं ने भाजपा को लेकर सत्ता विरोधी रुझान तो २०१८ में जता दिया था, लेकिन सिंधिया की बगावत से शिवराज को फिर सत्ता नसीब हो गई। लेकिन बीते तीन वर्षों में उन्होंने और उनके मंत्री व विधायकों ने सरकारी कार्यक्रमों को दल के आयोजनों में तब्दील कर उत्सवधर्मिता का जो खेल खेला, वह अब पार्टी के लिए मुश्किल बनता दिखाई दे रहा है, लिहाजा भाजपा के आंतरिक सर्वेक्षणों के मुताबिक, स्थानीय से लेकर शीर्ष स्तर तक जिन चेहरों को लेकर फीडबैक नकारात्मक है, उन्हें बदलने का दबाव संगठन पर बना हुआ है। लेकिन मुख्यमंत्री शिवराज से कहीं ज्यादा कार्यकर्ता पार्टी अध्यक्ष वीडी शर्मा से खफा हैं। लिहाजा, कर्नाटक के चुनाव परिणामों के बाद शर्मा कोई कठोर निर्णय ले पाएं, यह तो मुश्किल है, लेकिन केंद्रीय नेतृत्व चेहरे बदलने का सख्त निर्णय ले सकता है। हालांकि, कर्नाटक में चुनाव से पहले केंद्रीय नेतृत्व में कठोर पैâसला लिया था, लेकिन परिणाम शून्य रहे। दरअसल, निर्णय लेने में बहुत देरी हो चुकी थी। हालांकि, मध्य प्रदेश की तरह कर्नाटक में भी भाजपा दल-बदल के जरिए सत्ता में आई थी। इसी नक्शेकदम पर उसने महाराष्ट्र में शिवसेना की उद्धव ठाकरे सरकार को बेदखल किया हुआ है। दल-बदल की इन समानताओं के चलते भाजपा की मनमानी तो सामने आई ही, दूसरे दलों के नेताओं की दादागीरी भी मूल भाजपाइयों को झेलनी पड़ रही है। यह स्थिति नाराजी का बड़ा कारण बनी हुई है। संगठन ने इस नाराजगी को दूर करने के लिए १४ बड़े नेताओं को प्रदेश के विभिन्न जिलों में कार्यकर्ताओं के साथ बैठकर उसे दूर करने की रणनीति बनाई है, लेकिन मुश्किल है कि इन नेताओं में सिंधिया सहित उनके समर्थक वे मंत्री भी हैं, जो नाराजगी का बुनियादी कारण हैं। ऐसे विरोधाभास के चलते नाराजी कैसे दूर होगी, यह कहना फिलहाल मुश्किल है?
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं।)

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