विमल मिश्र मुंबई
मातृभूमि की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व त्याग कर दिया था नागपुर के शासक अप्पा साहब भोसले ने। मृत्युपर्यंत उनका पूरा जीवन निर्वासित रहते और बंजारा जीवन बिताते ही बीता।
१८१५ के आस-पास का कोई साल। भारत की दूसरी रियासतों की तरह नागपुर पर भी अंग्रेजों की कुटिल दृष्टि थी। ईस्ट इंडिया कंपनी का अंग्रेज रेजिडेंट ऊपर से तो ब्रिटिश हुकूमत में मिलाने की संधि के लिए दिखावे को तो विशेष संरक्षण जैसे प्रलोभन दे रहा था, पर पीछे साजिशें रचने में लगा था। महाराष्ट्र की नागपुर के लोकप्रिय और दूरदर्शी शासक राघो जी (द्वितीय) भोसले (१७८८-१८१६) मृत्युशय्या पर पहुंचे तो उन्होंने बेटे परसोजी को बुलाकर उनसे वचन लिया कि अपने चचेरे भाई अप्पा साहब (माधोजी द्वितीय भोसले)- जो उनके छोटे भाई व्यंकोजी के पुत्र थे-को संरक्षक मान उनके सहयोग से ही राज-काज चलाना।
२२ मार्च, १८१६ को राघो जी के निधन के उपरांत रेजिडेंट जेनकिंस की साजिशों ने रंग दिखाना शुरू कर दिया। सबसे पहले उसने दो दरबारियों नागू पंडित और नारायण पंडित को रिश्वत देकर फोड़ा, जिन्होंने किसी तरह अप्पा साहब को भरोसा दिला दिया कि ब्रिटिश शासन से संधि राज्य की जनता और प्रगति के पक्ष में है। २७ मार्च, १८१६ में हुई संधि की इस शर्त पर उन्होंने हामी भर दी कि रियासत की सुरक्षा अब मराठी फौज की जगह ईस्ट इंडिया कंपनी की फौज करेगी। स्वार्थी तत्व इस बीच दोनों भाइयों में मनमुटाव पैâलाने में भी सफल हो गए थे। परसोजी संधि तोड़ने की फिराक में थे कि अंग्रेजों ने गहरी चाल चलकर १० फरवरी, १८१७ को परसोजी की उनके ही राज-दरबार में हत्या करा दी, जब अप्पा साहब नागपुर में नहीं थे। २१ अप्रैल, १८१७ को उनके वारिस के रूप में अप्पा साहब ने गद्दी संभाल ली। कांटों के ताज से कम नहीं थी नागपुर की यह गद्दी। अंग्रेजों की साजिश समझ चुके अप्पा साहब ने पहले ही कदम के रूप में नागू पंडित और नारायण पंडित को राजसेवा से बेदखल कर दिया। कंपनी के गवर्नर जनरल के आदेश पर जेनकिंस ने हजारों की फौज के साथ १६ नवंबर, १८१७ को रेजिडेंसी और सीताबल्डी सहित नागपुर को घेर लिया। २६ और २७ नवंबर को अप्पा साहब की सेना ने सीताबल्डी में अंग्रेजों पर अचानक धावा बोल दिया, पर लड़ाई में जीत अंग्रेजों के हाथ लगी, जिसका नेतृत्व ले. कर्नल स्कॉट और वैâप्टन फिट्जेराल्ड कर रहे थे। रेजिडेंट ने समझौते की एवज में सेना की वापसी, हथियार समर्पण, भाड़े के २००० अरब सैनिकों की बर्खास्तगी, अंग्रेजी फौज पर हुए खर्च की भरपाई जैसी कई शर्तें अप्पा साहब से मनवानी चाहीं। इनमें सबसे अपमानजनक थी अप्पा साहब का नागपुर छोड़ ब्रिटिश छावनी में शरणागत होना। जेनकिंस ने अप्पा साहब से वादा किया कि अगर वे ऐसा कर लें तो बाकी शर्तों को बदला भी जा सकता है। अंग्रेजों से मिले भितरघातियों की सलाह पर अप्पा साहब १६ दिसंबर, १८१७ की सुबह ब्रिटिश छावनी में चले आए।
दगाबाजी तो अंग्रेजों के खून में ही थी। ६ जनवरी, १८१८ को उन्हें पहले से भी अधिक अपमानजनक शर्तों पर संधि करने को विवश किया गया। अप्पा साहब के छावनी में आते ही रेजिडेंट ने मराठी सेना को नागपुर से हटने का फरमान भेज दिया। इसपर आगबबूला होकर मराठे सैनिक तलवारें खींचकर सीताबल्डी में ब्रिटिश फौज पर टूट पड़े और उसे खदेड़ कर ही दम लिया। पेशवा बाजीराव द्वितीय ने तृतीय आंग्ल -मराठा युद्ध (१८१७ – १८) के रूप में अंग्रेजों के विरुद्ध जो संघर्ष छेड़ा था अप्पा साहब इस तरह उसके सहयोगी बने। पेशवा ने उन्हें ‘सेना साहब सूबा’ की पदवी प्रदान की। इस तरह गोरों से उन्होंने खुली दुश्मनी मोल ले ली।
साजिश-दर-साजिश
हार सामने देखकर रेजिडेंट ने अब नई चाल चली। धमकी दी कि अगर मराठा सेना नहीं हटी तो अप्पा साहब की हत्या कर दी जाएगी। सेना अपने भोंसला राजा को बहुत प्यार करती थी। सेना के हटते ही नागपुर पूरी तरह अंग्रेजों में कब्जे में हो गया। राघोबा जी के एक कम उम्र नाती को गद्दी का वारिस बनाकर अंग्रेजों ने अब अप्पा साहब को नए सिरे से परेशान करना शुरू कर दिया। उनपर विद्रोह के षड़यंत्रों सहित कई इलजाम लगाए गए। इनमें सबसे संगीन था परसोजी की हत्या का आरोप। १५ मार्च, १८१८ को अप्पा साहब को एक बार फिर वैâद कर लिया गया। जब उन्हें जबलपुर के रास्ते इलाहाबाद ले जाया जा रहा था तो साथ चल रही अंग्रेज फौज को चकमा देकर वे अपने वफादार सिपाहियों की मदद से घोड़े पर सवार होकर भाग निकले। उनका पहला ठिकाना बना छत्तीसगढ़, जहां गोंडों की एक सेना बनाकर उन्होंने चौसगढ़ के किले पर कब्जा कर लिया। नागपुर से बहुत सारे सैनिक भी आकर उनसे मिल गए। धन की कमी थी, सो मालवा के धन्नासेठों ने पूरी कर दी।
अंग्रेज मराठा सेना की बढ़ती शक्ति से बौखला गए थे। उन्होंने अप्पा साहब के सामने प्रस्ताव रखा कि अगर वे समर्पण कर देते हैं तो उन्हें एक लाख रुपए पेंशन दी जाएगी। अप्पा साहब के इसे ठुकरा देने के बाद कर्नल ऐडम्स हजारों सैनिकों की फौज को लेकर उन्हें पकड़ने निकला। असीरगढ़ किले में भयानक युद्ध हुआ, जिसमें अप्पा साहब का सबसे विश्वसनीय सिपहसालार चित्तू पिंडारी चीते का शिकार होकर जान गवां बैठा। ब्रिटिश फौज उन्हें पकड़ ही लेती कि जसवंत लार ने उन्हें छुड़ा लिया।
अप्पा साहब को अंग्रेजों ने भगोड़ा घोषित कर रखा था। इसलिए अप्पाजी को उनके जीवन के बाद के साल निर्वासित जीवन के रूप में बिताने पड़े। संन्यासी का बाना धारण कर असीरगढ़ से वे बुरहानपुर पहुंचे, वहां से पंजाब में महाराजा रणजीत सिंह के पास, फिर हिमाचल में मंडी और वहां से राजस्थान में जोधपुर के महाराजा के यहां। वे जोधपुर में थे, तभी जासूसों की सुरागदेही पर अंग्रेजों ने उन्हें सुपुर्द करने के लिए महाराजा मानसिंह को चेतावनी भेजी। पर, महाराजा ने उन्हें शरणागत बताते हुए इनकार कर दिया। इसका खामियाजा महाराजा को ब्रिटिश फौजों के हमले के रूप में भुगतना पड़ा। निर्वासित जीवन और हमेशा भागते रहने से अप्पा साहब जीर्ण हो चुके थे। तरह-तरह की बीमारियों ने उनकी काया में घर बना लिया था। जोधपुर के पास जिस मान मंदिर में वे आखिरी महीनों में रह रहे थे, वहीं १५ जुलाई, १८४० में उन्होंने अंतिम सांस ली।
(लेखक ‘नवभारत टाइम्स’ के पूर्व नगर संपादक,
वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं।)