मुख्यपृष्ठस्तंभमुंबई मिस्ट्री : डॉ. भंडारकर: भारत के गौरवशाली इतिहास के चितेरे

मुंबई मिस्ट्री : डॉ. भंडारकर: भारत के गौरवशाली इतिहास के चितेरे

विमल मिश्र
मुंबई



शिक्षाशास्त्री और इतिहासविद के रूप में डॉ. रामकृष्ण गोपाल भंडारकर की सबसे बड़ी देन है इतिहास के नवीन तत्वों को प्रकाश में लाकर भारत के गौरवशाली अतीत का पुनर्लेखन। समाज सुधारक के रूप में उनका योगदान भी उतना ही महत्वपूर्ण है।

पालि, मगधी, आदि प्राकृत भाषाओं का अध्ययन – अध्यापन करने वाले उन दिनों देश में दुर्लभ होते थे और भारतीय भाषाओं में ‌इतिहास विषय पर ग्रंथ रचयिता तो प्रायः बिलुकल ही नहीं। ऐसे में डॉ. रामकृष्ण गोपाल भंडारकर ने प्राकृत, ब्राह्मी, पाली, खरोष्टी आदि का सम्यक ज्ञान प्राप्त कर इतिहास संबंधी गवेषणाएं कीं और भारत के लुप्तप्राय इतिहास के तत्वों को प्रकाश में लाने का काम किया। इन भाषाओं व लिपियों में डॉ. भंडारकर की प्रवीणता को देखते हुए सरकार ने सुयोग्यतम विद्वान के रूप में उन्हें ही हस्तलिखित ग्रंथों की खोज व प्रकाशन का दायित्व सौंप दिया। डॉ. भंडारकर की सबसे बड़ी देन यही है – भारत के गौरवशाली अतीत के पुनर्निर्माण हेतु इतिहास के तत्वों को प्रकाश में लाना। इसके लिए उन्हें प्रेरित किया था उनके गुरू डॉ. दादाभाई नौरोजी ने।
दीर्घ शोधकार्य के बाद डॉ. भंडारकर ने ‘भारताचा पुरातत्त्व इतिहास’ को पांच विशाल खंडों के रूप में प्रकाशित किया, जो इतिहासकारों के लिए आज भी मार्गदर्शक का कार्य कर रहे हैं। सातवाहनों व वैष्णवों सहित कई संप्रदायों के इतिहास की पुनर्रचना का श्रेय भी उन्हें जाता है। वे न्याय और वेदांत के साथ व्याकरण के भी महान विद्धान थे। उनकी रचित संस्कृत की प्रथम और द्वितीय पुस्तक अंग्रेजी माध्यम से संस्कृत सीखने की सबसे आरंभिक पुस्तक मानी जाती है। वे ‘इंडियन ऐंडटक्वेरी’ नामक शोध पत्रिका से भी जुड़े। ‘दक्षिण भारताचा इतिहास’ और भवभूति की ‘मालती माधव’ की टीका उनकी प्रमुख रचनाओं में से हैं। प्राच्य पवित्र ग्रंथमाला के लिए वे ‘वायु पुराण’ का अंग्रेजी में अनुवाद भी कर रहे थे, जो अपूर्ण ही रह गया।
डॉ. भंडारकर राष्ट्रवादी चेतना के धनी थे। ऐसे प्रथम आध‌ुनिक भारतीय इतिहासकार, जिन्होंने भारतीय सभ्यता पर विदेशी प्रभावों के सिद्धान्त का जोरदार विरोध किया। पाश्चात्य चिन्तकों के आभामंडल से अप्रभावित रहते हुए उन्होंने अपनी कृतियों में हिंदू धर्म और उसके दर्शन की विशिष्टताएं इंगित करने वाले प्रामाणिक तर्कों को आधार बनाया, १९वीं सदी के मध्य भारतीय परिदृश्य में उठ रहे पुनरुत्थानवादी सोच को स्थिर व दृढ़ आधार प्रदान किया और सिद्ध किया कि भारतीय धर्म और दर्शन ने यूरोपीय विचारों को किस तरह प्रभावित किया है। डॉ. भंडारकर ने प्राच्यवादियों के अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन के सिलसिले में लंदन (१८७४) व वियना (१८८६) की अपनी यात्राओं में विदेशी विद्वानों को भारत के बारे में अपनी परंपरागत सोच बदलने को विवश कर दिया था। १८८५ में जर्मनी की गोटिने यूनिवर्सिटी ने उन्हें डॉक्टरेट की उपाधि से सम्मानित किया। उन्हें ‘नाइट’ का सम्मान और सी. आई. ई. की पदवी सहित कई बड़े पुरस्कार मिले। वे रॉयल एशियाटिक सोसाइटी और इंपीरियल लेजेस्लेटिव काउंसिल के सदस्य भी बनाए गए।
रूढ़िवाद के विरुद्ध आंदोलन
विद्यार्थी जीवन से ही डॉ. भंडारकर सामाजिक और धार्मिक सुधार संबंधी कार्यों में रुचि लेने लगे थे। रूढ़िवादी जाति प्रथा के विरुद्ध गुप्त रूप से सक्रिय परमहंस सभा में वे १८५३ से ही सक्रिय थे, १८६९ में वे प्रार्थना समाज से भी जुड़ गए। आज इसकी याद दिलाता है पुणे प्रार्थना समाज में उनकी स्मृति में निर्मित एक स्तूप। इंडिया सोशल कांन्प्रâेंस के सदस्य के रूप में डॉ. भंडारकर ने विधवा विवाह व महिला शिक्षा के समर्थन और जाति प्रथा व बाल विवाह के विरोध में अहम भूमिका निभाई। रूढ़िवादी माहौल से विद्रोह कर उन्होंने विधवा पुत्री का पुनर्विवाह किया। उन्होंने अपनी पुत्रियों व पौत्रियों को विश्वविद्यालयीन शिक्षा ही नहीं दिलाई, पसंद का जीवन साथी चुनने की समझ आने तक उनका विवाह भी नहीं किया। महाराष्ट्र गर्ल्स एजुकेशन सोसायटी के संस्थापकों में भी वे हैं।
डॉ. रामकृष्ण गोपाल भंडारकर का जन्म ६ जुलाई, १८३७ को सिंधुदुर्ग जिले के मालवण में एक मध्य वित्त गौड़ सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था, जहां उनके पिता तहसीलदार कार्यालय में मुंशी थे। पिता का तबादला रत्नागिरी जि‌ले के राजस्व विभाग में होने पर वहां के अंग्रेजी स्कूल में स्कूली शिक्षा पूरी करके १८५३ में उन्होंने मुंबई के एल्फिंस्टन कॉलेज में प्रवेश पाया, जहां डॉ. दादाभाई नौरोजी सरीखे उनके शिक्षक बने। १८६२ में कॉलेज से स्नातकों का जो पहला बैच ग्रेजुएट होकर निकला उसमें डॉ. भंडारकर भी थे। बी.ए.व एम.ए.दोनों ही की परीक्षाओं में सर्वोत्तम अंकों के साथ पास हुए। कुछ समय सिंध के हैदराबाद और रत्नागिरी के राजकीय विद्यालयों में प्रधानाध्यापक के तौर पर कार्य करने के बाद वे एल्फिंस्टन कॉलेज में ही व्याख्याता के रूप में काम करने लग गए। आगे चल कर पुणे के डेकन कॉलेज में वे संस्कृत के प्रथम भारतीय प्रोफेसर हुए और १८९४ में सेवानिवृत्ति से पूर्व मुंबई विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर भी रहे। वे पहले भारतीय हैं, जिन्हें मुंबई विश्वविद्यालय ने १८ सितंबर, १९०४ को एलएलडी की उपाधि प्रदान की। कलकत्ता विश्वविद्यालय ने १९०८ में उन्हें पीएच.डी. की डिग्री से सम्मानित किया।
डॉ. भंडारकर का २४ अगस्त, १९२५ को निधन हो गया। पुणे की भंडारकर ओरियंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट उनकी जीती-जागती स्मृति है, जिसे उनके प्रशंसकों और अनुयायियों ने मुंबई प्रशासन के साथ सर रतन टाटा और सर दोराबजी टाटा के सहयोग से १९१७ में स्थापित किया। इसका उद्घाटन जुलाई, १९१७ में मुंबई के तत्कालीन गवर्नर लॉर्ड विलिंग्डन ने किया। १९१९ में आल इंडिया कॉन्प्रâेंस ऑफ ओरिएंटल स्कालर्स नाम से प्राच्यवादियों का प्रथम अखिल भारतीय अधिवेशन यहीं आयोजित हुआ, जिसके प्रथम अध्यक्ष हुए डॉ. भंडारकर।

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