मुख्यपृष्ठस्तंभमुंबई मिस्ट्री : स्वतंत्रता संग्राम के गुरु-राजगुरु

मुंबई मिस्ट्री : स्वतंत्रता संग्राम के गुरु-राजगुरु

विमल मिश्र, मुंबई

‘यह बालक बहुत कम उम्र में ही कुछ ऐसा कार्य करेगा, जिससे इसका नाम भारत के इतिहास के स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा।’ शिवराम हरि राजगुरु की कुंडली देखते ही ज्योतिषाचार्य की पहली भविष्यवाणी यही थी, जो अक्षरश: सच सिद्ध हुई। सरदार भगत सिंह और सुखदेव के साथ २३ मार्च, १९३१ को फांसी पर लटकाए जाने की वजह से राजगुरु भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अमर सेनानी कहलाते हैं। उस समय उनकी उम्र भी महज २२ वर्ष थी।
शिवराम हरि राजगुरु का जन्म २४ अगस्त, १९०८ को महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले की खेड़ तहसील में हरिनारायण राजगुरु और पार्वती देवी के महाराष्ट्रीय देशस्थ ब्राह्मण कुल में हुआ था। पार्वती देवी हरिनारायण जी की दूसरी पत्नी थीं और शिवराम पांचवीं संतान। हरिनारायण पं. कचेश्वर की सातवीं पीढ़ी में जन्मे थे, जिन्हें छत्रपति शिवाजी के पोते शाहूजी महाराज अपना गुरु माना करते थे। ‘राजगुरु’ इनके पूर्वजों को उनके द्वारा सम्मान में दी गई पदवी थी।
राजगुरु जब मात्र छह वर्ष के थे, तब पिता का देहांत हो जाने से घर की जिम्मेदारियां उनके बड़े भाई दिनकर के कंधों पर आ गईं, जो पुणे में रहते थे। गांव की मराठी पाठशाला में प्राथमिक शिक्षा के बाद आगे की कुछ शिक्षा उन्होंने पुणे के न्यू इंग्लिश हाई स्कूल में ग्रहण की। राजगुरु वैसे तो तीव्र बुद्धि थे, पर अध्ययन कार्यों में उनका मन नहीं लगता था। बड़े भाई ने जब उनसे अंग्रेजी पढ़ने का आग्रह किया तो उन्होंने साफ कह दिया कि वे यह भाषा पढ़कर, अंग्रेज परस्त बनकर ब्रिटिशों के अधीन होकर कार्य नहीं करेंगे। वह अपना संपूर्ण जीवन राष्ट्र की सेवा करके बिताएंगे। दिनकर ने तैश में आकर उन्हें घर छोड़कर जाने को कह दिया। बस, वे उसी शाम घर से निकल गए। कभी पैदल और कभी बिना टिकट के यात्रा करते हुए वे पुणे, नासिक, खेड, झांसी, कानपुर, लखनऊ होते हुए लगभग १५ दिन बाद काशी पहुंचे और एक संस्कृत विद्यालय में प्रवेश ले लिया। वहां जल्द ही उन्होंने संस्कृत व वेद व शास्त्रों के अध्ययन के साथ ही ‘लघु सिद्धांत कौमुदी’ जैसे कठिन ग्रंथ को कंठस्थ कर लिया। खर्च चलाने के लिए कभी अपनी ही पाठशाला के शिक्षक के यहां नौकरी की तो कभी प्राथमिक स्कूल में व्यायाम और योग प्रशिक्षक की। व्यायाम के शौक के कारण वे अखाड़ों में जाकर कुश्ती किया और सिखाया भी करते थे। छत्रपति शिवाजी की युद्ध-शैली के बड़े प्रशंसक थे।
क्रांतिकारियों से संपर्क
इस समय काशी क्रांतिकारियों का गढ़ था। वहां विद्याध्ययन करते हुए राजगुरु का संपर्क सरदार भगत सिंह, सुखदेव, यतींद्रनाथ दास, मुनीश्वर अवस्थी, श्रीराम बलवंत सावरकर आदि अनेक क्रांतिकारियों से हुआ। चंद्रशेखर आजाद ने- जो खुद काशी में ही रहते थे। ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ नाम से क्रांतिकारी संगठन बनाया हुआ था। वे उसके सदस्य बन गए। पार्टी के अंदर उन्हें ‘रघुनाथ’ के छद्म-नाम से जाना जाने लगा। राजगुरु को शुरू में पार्टी के अन्य क्रांतिकारी सदस्य शिव वर्मा के साथ मिलकर दिल्ली में एक देशद्रोही को गोली मारने का कार्य दिया गया। वह काम जो उन्होंने किया, पर गलती से किसी और को मार बैठे।
सांडर्स कांड
१९२८ में अंग्रेजों ने भारतीय राजनीति में सुधार लाने के उद्देश्य से साइमन कमीशन नियुक्त किया था। इसमें किसी भारतीय नेता को शामिल नहीं करने पर पूरे देश में उबाल था। लाला लाजपत राय (लालाजी) ने जब इस कमीशन के बहिष्कार के लिए आंदोलन करने के लिए जब लाहौर में जुलूस निकाला, तब जेम्स ए. स्कॉट के आदेश पर गोरी फौज ने उन पर लाठीचार्ज किया, जिसमें डिप्टी सुपरिटेंडेंट सांडर्स की लाठी से घायल हुए लालाजी का देहांत हो गया। हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी ने स्कॉट और सांडर्स का वध कर इसका बदला लेने की योजना बनाई। इस योजना को अमलीजामा पहनाने की जिम्मेदारी सरदार भगत सिंह तथा सुखदेव के साथ राजगुरु को दी गई, जबकि चंद्रशेखर आजाद ने छाया की भांति इन तीनों को सुरक्षा देने का निर्णय किया।
क्रांतिकारी जयगोपाल स्कॉट को पहचानते थे। योजना के तहत १७ दिसंबर, १९२८ को शाम ७ बजे राजगुरु और सरदार भगत सिंह कोतवाली के सामने चल रहे थे और जयगोपाल मॉल रोड पुलिस कोतवाली के सामने साइकिल ठीक करने का दिखावा कर रहे थे। जब हमलावरों की खोज हुई, तब चारों ओर से रास्ता घिरा देख लाहौर से बाहर निकलने के लिए राजगुरु और सरदार भगत सिंह दुर्गा भाभी (भगवतीचरण बोहरा की पत्नी) की मदद से कानपुर की ट्रेन में सवार हो गए। योजना के तहत ओवरकोटधारी भगत सिंह साहब बने और दुर्गा भाभी उनकी पत्नी। भगत सिंह की गोद में दुर्गा भाभी का तीन वर्षीय बेटा शची था। राजगुरु अर्दली बनकर गाड़ी के तीसरे दर्जे में सवार हुए, जबकि चंद्रशेखर आजाद साधु बनकर।
बाद की कहानी भारत के क्रांतिकारी इतिहास का गौरवशाली पन्ना है। ब्रिटिश अदालत ने सरदार भगत सिंह व सुखदेव के साथ राजगुरु को सांडर्स की हत्या और असेंबली बम कांड के अपराध के रूप में फांसी की सजा सुनाई। सजा के मुताबिक, तीनों को २४ मार्च, १९३१ को फांसी होनी थी, पर जन विद्रोह के भय से एक दिन पहले ही उन्हें लाहौर जेल में फांसी दे दी गई। तीनों की अंत्येष्टि फिरोजपुर जिले के हुसैनवाला गांव में सतलज नदी के किनारे की गई। आज यह उनका स्मृतिस्थल है। देश हर वर्ष २३ मार्च को उनके सम्मान में ‘शहीद दिवस’ मनाता है। राजगुरु के सम्मान में, उनके जन्मस्थान खेड़ का नाम बदलकर उसे ‘राजगुरु नगर’ कर दिया गया। दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज भी उनके नाम पर है।

(लेखक ‘नवभारत टाइम्स’ के पूर्व नगर संपादक, वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं।)

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