विमल मिश्र मुंबई
‘आचार्य दादा धर्माधिकारी’ नाम से प्रतिष्ठित शंकर त्र्यंबक धर्माधिकारी भारत के प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी, गांधीवादी चिंतक और प्रसिद्ध लेखक थे। भारतीय मनीषा में उनका वही स्थान माना जाता है, जो ‘महाभारत’ में महात्मा विदुर का है।
भारतीय मनीषा में आचार्य दादा धर्माधिकारी का वही स्थान माना जाता है जो ‘महाभारत’ में महात्मा विदुर का है। महात्मा विदुर की तरह ही कोई शक्ति, अधिकार, धन या साधन न होने पर भी आम हो या खास हर कोई उनके सम्मुख सिर नवाता था। व्यक्तिगत या सार्वजनिक जीवन में दुविधाओं का सामना करने पर कई बार महात्मा गांधी, विनोबा भावे, जमना लाल बजाज और जयप्रकाश नारायण तक सलाह के लिए उनके पास जाते थे।
१८ जून, १८९९ को मध्य प्रदेश के बैतूल जिले में ताप्ती के मूल स्थान मूलतापी में पैदा हुए थे धर्माधिकारी। पिता थे डिस्ट्रिक्ट और सेशन जज टी. डी. धर्माधिकारी। इंदौर के क्रिश्चियन कॉलेज और फिर नागपुर के मॉरिस कॉलेज में वे पढ़ रहे थे, तभी १९२० में महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन आरंभ कर दिया। देश के लाखों युवाओं की तरह देश के स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा बनने के लिए उन्होंने भी शिक्षा बीच में ही छोड़ दी। कुछ समय तिलक विद्यालय-नागपुर में शिक्षक के रूप में कार्य किया, फिर गांधी सेवा संघ के सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में १९३५ में सेवाग्राम-वर्धा के गांधी आश्रम में आकर रहने लगे। ‘दादा धर्माधिकारी’- उनका स्नेह का यह नाम इतना प्रचलित हुआ कि लोग उनका मूल नाम (शंकर त्र्यंबक धर्माधिकारी) भूल से गए। १९३०, १९३२ और फिर १९४२ के ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन में तीन बार दादा की गिरफ्तारी हुई, जिनमें उनकी संगिनी बनीं उनकी धर्मपत्नी दमयंती बाई। जेल से छूटने पर दादा पहले मध्य प्रदेश विधानसभा के सदस्य और फिर संविधान सभा के सदस्य चुने गए।
कालातीत कृतियां
आचार्य दादा धर्माधिकारी के पास औपचारिक शिक्षा की कोई डिग्री नहीं थी, किंतु अपने घनिष्ठ मित्र जे. कृष्णमूर्ति की ही तरह वे अपने समय के विचारकों में महत्वपूर्ण गिने जाते थे। आदि शंकराचार्य के वेदांत सहित मनीषा की विभिन्न विधाओं में अपनी निपुणता और हिंदी, मराठी, अंग्रेजी, संस्कृत और गुजराती, बांग्ला जैसी भाषाओं पर जोरदार पकड़ के दम पर दादा ने अपनी कई कालातीत कृतियां साहित्य को दीं। ‘मानवनिष्ठ भारतीयता’ में अपनी पैनी दृष्टि से उन्होंने सांप्रदायिकता तथा धर्मनिरपेक्षता से जुड़े प्रश्नों के समाधान जिस तरह देखे वे आज भी प्रासंगिक माने जाते हैं।
स्वतंत्रता संग्राम, समाजसेवा और गांधीवादी विचारणा के साथ साहित्य के क्षेत्र में भी आचार्य दादा धर्माधिकारी ने अपनी अलग प्रतिष्ठा कायम की। दादा वैचारिक क्रांति के पक्षधर थे और समाज में परिवर्तन के वास्ते लोगों के विचारों में परिवर्तन को आवश्यक मानते थे। अपनी दो दर्जन से अधिक प्रकाशित पुस्तकों में उन्होंने हिंदी और मराठी के साथ गुजराती में भी लिखा। हिंदी में उनकी प्रमुख कृतियां हैं ‘अहिंसक क्रांति की प्रक्रिया’, ‘क्रांतिशोधक’, ‘गांधीजी की दृष्टि’, ‘अगला कदम’, ‘युवा और क्रांति’, ‘दादा की बोध कथाएं’, ‘स्त्री-पुरुष सहजीवन’, ‘नए युग की नारी’, ‘लोकतंत्र विकास और भविष्य’ और ‘समग्र सर्वोदय दर्शन’। मराठी की उनकी रचनाओं में नाम धराती हैं ‘आपल्या गणराज्याची घडण’, ‘तरुणाई’, ‘दादांच्या शब्दांत दादा’, ‘नागरिक विश्वविद्यालय – एक परिकल्पना’, ‘प्रिय मुली’ और ‘मैत्री’। इनमें कुछ पुस्तकें हिंदी और मराठी – दोनों में हैं और एक जर्मन में भी। ‘हिमालय की यात्रा’ (दत्तात्रेय बालकृष्ण कालेलकर के मूलत: गुजराती में लिखे यात्रा वृत्तांत का अनुवाद है)।
दादा धर्माधिकारी आजीवन सत्ता, धन, पद और उपाधियों से दूर रहे। हिंदी की अमूल्य सेवा के लिए उन्हें वर्धा की राष्ट्रभाषा प्रचार समिति ने अपना सर्वश्रेष्ठ ‘गांधी पुरस्कार’ प्रदान किया। इस तरह यही एकमात्र पुरस्कार है, जिसे दादा ने सहर्ष स्वीकार किया, वरना उन्होंने ‘पदमश्री’ व ‘पद्म विभूषण’ जैसे अलंकरण स्वीकार करने की विनंतियां और मुख्यमंत्री पद तक के प्रस्ताव ठुकरा दिए थे।
भूदान आंदोलन
आचार्य दादा धर्माधिकारी ने अपना अधिकांश समय दलितों और महिलाओं के उत्थान में लगाया। वे सर्वोदय सम्मेलन के अध्यक्ष बने। वे जयप्रकाश नारायण की ‘संपूर्ण क्रांति’ के पक्षधर थे। उन्होंने आचार्य विनोबा भावे के ‘भूदान आंदोलन’ में भी बढ़-चढ़कर भाग लिया। १ दिसम्बर, १९८५ को सेवाग्राम में उनका देहांत हो गया।