मुख्यपृष्ठस्तंभमुंबई मिस्ट्री : उपल‌ब्धिवान स्वतंत्रता सेनानी-हंसा मेहता

मुंबई मिस्ट्री : उपल‌ब्धिवान स्वतंत्रता सेनानी-हंसा मेहता

विमल मिश्र
मुंबई

हंसा स्वतंत्रता सेनानी ही नहीं थीं, सुधारवादी, नारीवादी, शिक्षाविद और लेखिका के रूप में उन्होंने अपनी अलग छाप छोड़ी।
स्वतंत्रता आंदोलन में महिलाओं ने पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर भाग लिया।इन आंदोलनकारियों में उच्च वर्ग व कामकाजी सहित हर वर्ग की महिलाएं थीं। इनमें उंगलियों पर गिने जा सकने वाले कुछ परिचित नामों को छोड़कर बाकी अब याददाश्त से लुप्त हो चले हैं। इतिहास में उनका कहीं कोई जिक्र तक नहीं है।
हंसा मेहता जब १९१८ में सरोजिनी नायडू और १९२२ में महात्मा गांधी से मिलीं, तो उनकी जिंदगी ही बदल गई। वे बॉम्बे बार कौंसिल की अध्यक्ष थीं, इस नाते प्रदर्शन और मोर्चों के साथ विदेशी कपड़े और शराब बेचनेवाली दुकानों के बहिष्कार के आयोजन उनकी दिनचर्या में शामिल हो गए। इसकी परिणति हुई १९३२ में पति जीवराज नारायण मेहता (प्रख्यात चिकित्सक और प्रशासक) के साथ उनकी गिरफ्तारी। देश सेविका संघ की वे कर्णधारों में थीं।
हंसा मेहता का जन्म ३ जुलाई, १८९७ को सूरत के एक नागर ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता मनुभाई मेहता बड़ौदा व बीकानेर रियासतों के दीवान थे और दादा नंदशंकर मेहता गुजराती भाषा के पहले उपन्यास ‘करण घेलो’ के लेखक। इंग्लैंड में उन्होंने पत्रकारिता और समाजशास्त्र में उच्च शिक्षा प्राप्त की।
सुधारवादी, नारीवादी और शिक्षाविद
हंसा मेहता स्वतंत्रता सेनानी ही नहीं थीं, अपने समय की जानी-मानी सुधारवादी, नारीवादी और शिक्षाविद के रूप में उन्होंने एसएनडीटी महिला विश्वविद्यालय और बड़ौदा विश्वविद्यालय की वाइस चांसलर के रूप में अपनी अलग छाप छोड़ी। लेखिका के बतौर उन्होंने गुजराती में बच्चों के लिए किताबें लिखीं और वाल्मीकि रामायण: अरण्यकांड, बालकांड और सुंदरकांड के साथ कई अंग्रेजी कहानियों, उपन्यासों और नाटकों के भी अनुवाद किए। १९५९ में उन्हें ‘पद्म भूषण’ से सम्मानित किया गया था। हंसा मेहता जैसी उपलब्धिवान महिलाएं स्वतंत्रता संग्राम में कम ही हुई हैं। देश की आजादी के बाद वे संविधान सभा का हिस्सा बनीं। उन्होंने अखिल भारतीय महिला सम्मेलन व इंटर यूनिवर्सिटी बोर्ड ऑफ इंडिया के अध्यक्ष पद संभाले। वे बम्बई विधान परिषद के लिए भी निर्वाचित हुईं।
हंसा मेहता की अंतर्राष्ट्रीय उपलब्धियां भी कम नहीं हैं। उन्होंने १९४६ में महिलाओं की स्थिति पर एकल उप-समिति में भारत का प्रतिनिधित्व किया। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में भारतीय प्रतिनिधि के रूप में १९४७-४८ में वे मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा की भाषा को बदलने में वे सफल रहीं थीं और दो वर्ष बाद १९५० में संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार आयोग की उपाध्यक्ष भी बनीं। वे यूनेस्को के कार्यकारी बोर्ड की सदस्य भी थीं।
४ अप्रैल, १९९५ को उनका देहांत हो गया। उनके निधन से देश ने महान स्वतंत्रता सेनानी, कुशल राजनीतिज्ञ और शिक्षाविद ही नहीं, प्रखर सुधारवादी और नारीवादी को भी खो दिया।
(लेखक ‘नवभारत टाइम्स’ के पूर्व नगर संपादक, वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं।)

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