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पाठकों की रचनाएं : मुंशी प्रेमचंद

मुंशी प्रेमचंद
उर्दू-हिंदी साहित्य धरोहर, हमें धनपत राय पर गर्व,
नवाब राय के सोज-ए-वतन,
में लिखा था देश का दर्द,
मचा तहलका देश में, अंग्रेजों को लगी जोर की सर्द,
जासूसों ने उन्हें चेताया, बताया यह राष्ट्र प्रेम खुदगर्ज,
अंग्रेजों ने नवाब राय को बताया दहशतगर्द,
पूरी किताबें जब्त करो, प्रतिबंध ही इसका मर्ज,
जब्त हुआ सोजे वतन, अंग्रेजों ने छापा
मार किया एक फिर अर्ज,
बीच सड़क सोजे वतन जलाया,
बताया खुद को जनता का हमदर्द,
भावना, इच्छा, आजादी कुचला अंग्रेज बड़ा बेदर्द,
नवाब राय तब मुंशी प्रेमचंद बन निभाए देश प्रेम का कर्ज,
आजादी के अंगारे-शोले बन, निभाए अपना फर्ज,
उनकी कलम स्वाधीनता उगले, क्या था उनको हर्ज,
देश की खातिर मर मिटने का अद्भुत था उनका तर्ज,
वाराणसी के लमही ग्राम में जन्मा अंग्रेजों का सिरदर्द,
जात-पात का भेद मिटाया, आजाद दीवाना प्रेमचंद था मर्द,
जाहिल, बुजदिल क्या जानेंगे, जो तब थे नामर्द,
विश्व के ऐसे कलमकार को `भारत रत्न’ का गर्ज,
आओ जोर से मांग करें, यही हमारा फर्ज!
जो सपने देखे मुंशी जी ने साकार करें हम दर्ज!
– संजय सिंह `चंदन’

दूरियां
विचारों में फासले से दूरियां भी बहुत थी
फिर भी दिलों से नजदीकियां बहुत थी
जैसे-जैसे पास आए फासले कम हुए
और दिलों की दूरियां बढ़ती गई
वो सोचता है मैं समझ नहीं पाई
पर मुझसे समझदारी की उम्मीद
किसने और क्यों लगाई?
उसके करीब तो मैं जा ही नहीं सकती थी
ये जानते हुए भी जिंदगी की बाजी लगाई
ना चैन होगा ना करार जानते हुए
एकांत की शांति में खुद ही ने आग लगाई
तेरे बोल ही याद आते हैं अब बस
ना जाने अहसास मर क्यों गए
अब कैसे बताऊं?
अल्फाज तो आज भी वही है उसके
बस लहजे कुछ बदल से गए
शिद्दत तो आज भी है
पर जूनून काफूर हो गया
बस प्रेम ही तो गायब हो चला
चाहत तो आज भी वही है
– गायत्री शर्मा, कालेहर

`सुदामा के पोहे’
श्री कृष्ण की सुदामा से मुलाकात हो गई,
दोस्ती यह बचपन की एक मिसाल हो गई।
सुदामा की हिचकिचाहट में,
गरीबी की सकुचाहट में,
झोली में रखे `पोहों’ की श्री कृष्ण को आहट हो गई।
`भाभी ने जरुर कुछ भेजा है,
जिसे तूने छुपा रख सेजा है’।
कह कर सुदामा की झोली,
छीन झपट चट खोली।
प्रेम से दो मुट्ठी पोहे भर-भर जो श्री कृष्ण ने खाए,
दूर खड़ी दरिद्रता भी हाथ जोड़े मंद-मंद मुस्काए।
दूर हुई दरिद्रता,
जीत गई मित्रता।
श्री कृष्ण की भव्यता,
और सुदामा की दरिद्रता।
आज तक इस जग में जगमगाए,
श्री कृष्ण की लीलाओं को क्या कोई समझ पाए।
-पंकज गुप्ता, मुंबई
चल राहगीर
सुखों ने बहिष्कार किया
दु:खों ने आविष्कार किया
हलकी है जिंदगी भारी है बोझ
उठाते हैं रुष्ट तकदीर का रोष
कुछ सूझता नहीं चाह के भी
रुकता नहीं अंदर का दबदबा
तिनका भी सहारा नहीं देता
छोटा-सा कण भी हमारा नहीं होता
धूप-छांव एक सम्मान है
दिन-रात भी बेईमान है
किसी राह पे हमें भी चलना है
या सिर्फ नदियों को पार करते रहना है
हर अगले पड़ाव के लिए पत्थर तोड़ना पड़ता है
आग की लकीर से खेलना पड़ता है
आजादी से मिलना है या
पिंजरे में ही बसर कर जाना है
शीत लहर भी गर्म लू बन के आती है
विश्वास ओझल हो जाता है
मनोबल टूट जाता है
सीने में तूफान उमड़ता है
दिल दहकने लगता है
ये अनमोल रतन है
किसी को मिली आजादी
किसी को मिला बंधन है
– अन्नपूर्णा कौल, नोएडा

तुम्हारा शहर
तुम्हारे शहर का इंतजाम शानदार लगा
हर बेईमान यहां ईमानदार लगा
इतनी गर्मजोशी से मिला दोस्त मेरा
मुझे दिल ही दिल में उससे डर लगा
कभी सूखा…भूकंप…कभी बाढ़
नेता को ये साल बहुत कामयाब लगा
बड़ी उम्मीद से आया था
वो गांव के जलसे में
इंसानों की भीड़ में न कोई हिंदू न मुसलमान
नेता को ये गांव बड़ा नागवार लगा
ईमान…इखलाक और बेपनाह मुहब्बत
ये गरीब भी मुझे खूब मालदार लगा
ये तरक्की के किस दौर में आ गए हम
शहर में हर आदमी एक-दूसरे से खबरदार लगा।
– डॉ. रवींद्र कुमार

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