शोर

आज तो हम आदमी नहीं शोर बन गए हैं
गम को छुपा के अपने गम खोर बन गए हैं
चारों ओर गूंज रहीं आवाजें अनजानी
लेकिन चुप हुए रिश्ते अब कमजोर बन गए हैं
पहले घरों में बोलते थे नाद ब्रह्म के
अब वो रॉक बैंड के बेसुरे चिकोर बन गए हैं
रास्ते पर दौड़ते वाहन ही दिख रहे हैं
खिड़की पर बैठे हुए बस चकोर बन गए हैं
घर पर भी बातेँ होती हैं अब मोबाइल से
लगता है लोग जंगल के अघोर बन गए हैं
पीसने को आटा चक्की और मिक्सर है अब
लोग तभी तो कितने कामचोर बन गए हैं
नहीं चहचहाती है गौरैया आज छत पर
कांच के बरामदे अब मुंडेर बन गए हैं
ग्लोबल बनी है दुनिया मन में नहीं जगह अब
हम बनते बनते इंसा बरजोर बन गए हैं।
-डॉ. कनक लता तिवारी

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